सरफ़रोशी की तमन्ना…………!
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा !!
सिखाने की जिजीविषा थी……..!
अपने सपने को अंजाम तक पहुँचाने के लिए 9 अगस्त 1925 को चन्द्र शेखर आजाद, अशफाक उल्लाह खान, राजिंदर लाहिड़ी, बिस्मिल और रोशन सिंह सहित 10 क्रांतिकारियों ने लखनऊ से 14 मील दूर काकोरी और आलमनगर के बीच शाम के समय 8 डाउन ट्रेन शाहजहांपुर -लखनऊ में ले जाये जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया. यही घटना इतिहास में काकोरी कांड के नाम से जानी जाती है. दरअसल ट्रेन को लूटने का आइडिया भी बिस्मिल का ही था. एच.आर.ए.(हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएसन) के सदस्यों ने यह कारनामा करने का वीणा उठाया था……..यद्दपि इसी घटना के एक अन्य क्रान्तिकारी चन्द्र शेखर आजाद को पुलिस उनके जीते जी नहीं पकड़ सकी. 26 सितम्बर 1925 को बिस्मिल गिरफ्तार किये गए और उनको गोरखपुर जेल में रखा गया. उल्लेखनीय है कि बिस्मिल का जन्म शाहजहांपुर में 1897 में हुआ था. ऐसा बताया जाता है कि निर्धनता के कारण वे महज़ आठवीं तक ही अपनी पढाई कर सके. बाद में वे देश आजाद करने के मिसन में हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएसन से जुड़ गए जहाँ उनकी मुलाकात अन्य क्रांतिकारियों से हुई. काकोरी के ये नायक महज़ किसी जल्दबाजी या उत्तेज़ना के शिकार नहीं थे …….वे नवयुवक होने के बावजूद बहुत ही बौद्धिक और विचारक थे. अगर बात बिस्मिल कि करें तो बिस्मिल के पास न केवल हिंदी बल्कि अंग्रेजी, बंगला और उर्दू भाषा का ज़बरदस्त ज्ञान था. उनका लिखा हुआ तराना “सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है…..देखना है जोर कितना बाज़ू ए कातिल में है……..!” पूरे देश में बच्चे बच्चे की जुबान पर उन दिनों था…………!
काकोरी लूट के बाद इन क्रांतिकारियों पर मुकद्दमा चला …….ट्रेन लूट और एक यात्री की मौत के इलज़ाम के दोषी बताकर 4 क्रांतिकारियों को फाँसी कि सजा सुनायी गयी और फाँसी का दिन भी 19 दिसम्बर 1927 मुक़र्रर हुआ…………बिस्मिल को गोरखपुर जेल में रखा गया………! बताते हैं कि जब गोरखपुर जेल में बिस्मिल के माता पिता फाँसी के एक दिन पूर्व उनसे मिलने पहुंचे तो बिस्मिल की आँखों से आंसू छलक पड़े……तो उनकी माँ ने कहा आज़ादी के दीवाने रोया नहीं करते. बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा भी लिखी थी. यह आत्मकथा गोरखपुर जेल में ही लिखी गयी थी. यह फांसी के केवल तीन दिन पहले समाप्त हुई. 18 दिसम्बर 1927 को जब उनकी माँ उनसे मिलने आयीं तो बिस्मिल ने अपनी जीवनी की हस्तलिखित पांडुलिपि माँ द्वारा लाये गये खाने के बक्से (टिफिन) में छिपाकर रख दी, बाद में श्री भगवती चरण वर्मा जी ने इन पन्नों को पुस्तक रूप में छपवाया। बाद में पता चलते ही ब्रिटिश सरकार ने इस पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगा दिया और इसकी प्रतियाँ जब्त कर लीं गयीं। सन 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद इसे पुन: प्रकाशित कराया।
मेरा इन शहीदों को याद करना स्वाभाविक है किन्तु शहीद बिस्मिल को विशेष रूप से याद करने की एक वज़ह यह भी है कि मैंने काकोरी और गोरखपुर दोनों को करीब से देखा है……….यह दोनों स्थान किसी न किसी रूप में उनसे जुड़े रहे हैं……..! काकोरी कांड के उन सभी क्रांतिकारियों को याद करते हुए बरबस ही वो तराना याद आता है……जो क्रांति के दौरान बहुत लोकप्रिय था……! आइये हम सब दोहरातें हैं इस जोशीली ग़ज़ल को नश-नश, रग- रग में जोश का नया ज़ज्बा भर देती है…….! इल्तिजा आप सभी से कि आप सब भी इस सुर में शामिल हो जाईये…….!
देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है !!
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है !!ऐ वतन, करता नहीं क्यूँ दूसरा कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है !!रहबरे राहे मुहब्बत, रह न जाना राह में,
लज्जते-सेहरा न वर्दी दूरिए-मंजिल में है !!अब न अगले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़,
एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है !!