यूँ भी हम अपनी हर इक रात बसर करते हैं
यूँ भी हम अपनी हर इक रात बसर करते हैं
आपकी याद के साये में सफर करते हैं
एक ही लम्हा गुज़र जाये तेरे साथ कभी
इसी ख़्वाहिश में यहाँ उम्र बसर करते हैं
सूरते संग हैं जो वो भी कभी पिघलेंगे
सुनते आए हैं कि सज्दे भी असर करते हैं
हौसला सहने का अपना है सितम हैं उनके
गम की तौहीन है हम उफ भी अगर करते हैं
‘याद रखेगा जहाँ’ सिर्फ ख़याल अच्छा है
वरना कब लोग गये कल पे नजर करते हैं
सूरते-संग = पत्थर की तरह