मेरा एहसास मेरे रू ब रू………..!

रवायती ग़ज़ल लिखने में मैं खुद को बहुत असहज पाता हूँ………..रवायती ग़ज़लें इश्क, एहसास, शराब, शबाब, बेवफाई जैसे ख्यालों तक ही खुद को समेटी रहती हैं……….इधर ग़ज़लों का रूप-रंग- कलेवर बदला है, उसमें इन सारे विषयों को तो देखा ही जा सकता है साथ ही गरीबी, राजनीति, सामाजिक पहलू, पर्यावरण, रिश्ते के ताने-बाने, धर्म जैसे मुख्तलिफ विषयों पर भी उतनी ही संजीदगी से लिखा पढ़ा जा रहा है……… आज की ग़ज़ल सामाजिक सरोकारों से महक रही है…….नए-नए एहसासात अब ग़ज़लों की ज़मीन को भिगो रहे हैं……..नए प्रयोग और भाषा धर्मिता ग़ज़लों में सहज दृष्टव्य हैं……………! वापस आता हूँ अपनी शुरूआती बात पर………..रवायती ग़ज़लों के लिखने की कोशिश पर. असल में मेरी पत्नी को रवायती ग़ज़लें ही ज्यादा पसंद हैं ……….जिनमे नाज़ुक एहसासों की खुश्बू आती रहे…. मैंने अपनी धर्म पत्नी के कहने पर एक रवायती ग़ज़ल लिखने का प्रयास किया है, आपको वो प्रयास पेश कर रहा हूँ…..!

कोई भी तज़्किरा हो या गुफ्तगू हो !
तेरा ही चर्चा अब तो कू ब कू हो !!

मयस्सर बस वही होता नहीं है,
दिलों को जिसकी अक्सर जुस्तजू हो !!

ये आँखें मुन्तजिर रहती हैं जिसकी,
उसे भी काश मेरी आरज़ू हो !!

मुखातिब इस तरह तुम हो कि जैसे,
मेरा एहसास मेरे रू ब रू हो !!

तुम्हें हासिल ज़माने भर के गुलशन,
मिरे हिस्से में भी कुछ रंग ओ बू हो !!

नहीं कुछ कहने सुनने की ज़ुरूरत,
निगाह ए यार से जब गुफ्तगू है !!

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