मनीष एक अदबी शायर

मनीष और मेरा साथ गत १० बरस का है। मनीष से मेरा साथ तब से है जब हमारी नयी नयी नौकरी लगी थी । हम ट्रेनिंग में लखनऊ में थे वित्त संस्थान में ट्रेनिंग ले रहे थे तभी शेर ओ शायरी के शौक ने हम को एक दूसरे के करीब ला दिया । हम लोग नैनीताल में भी ट्रेनिंग साथ साथ कर रहे थे ….तब ये शौक परवान चढा। हम दोनों घंटो एक दूसरे को शेर ओ शायरी को शेयर करते। बहरहाल मनीष के साथ रिश्ते दिन ब दिन मजबूत हुए मुझे ये कहने में कोई हिचक नही की मनीष आज मेरे सबसे अच्छे दोस्तों में से एक है। उम्र में ५ बरस बड़ा होने के कारण मनीष मेरे बड़े भाई के रूप में भी है। उनकी सबसे ख़ास बात ये है की अच्छे अधिकारी होने के साथ साथ वे एक अच्छे शायर भी हैं। बड़ी खामोशी के साथ वे अपना साहित्य srijan में लगे हुए हैं और मज़े की बात ये है की उनकी शायरी में अदब तो है ही जीवन के मूल्यों की गहरी समझ भी है। मेरे अन्य शायर दोस्तों की तरह वे भी दिखावे और मंच की शायरी से दूर रहते हैं । उनको पहली बार मंच पर लाने का काम मैंने तब किया जब मैं मीरगंज में ऊप जिलाधिकारी था और एक मुशायरा वहां आयोजित कराया था। १९७० को उन्नाओ में जन्मे मनीष शुक्ला की कुछ ग़ज़ल यहाँ पेश है …………निश्चित रूप से अच्छी लगेंगी।

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कागजों पर मुफलिसी के मोर्चे सर हो गए, और कहने के लिए हालात बेहतर हो गए।

प्यास के शिद्दत के मारों की अजियत देखिये ,खुश्क आखों में नदी के ख्वाब पत्थर हो गए।

ज़र्रा ज़र्रा खौफ में है गोशा गोशा जल रहे, अब के मौसम के न जाने कैसे तेवर हो गए।

सबके सब सुलझा रहे हैं आसमा की गुत्थियां, मस आले सारे ज़मी के हाशिये पर हो गए।

फूल अब करने लगे हैं खुदकुशी का फैसला, बाग़ के हालात देखो कितने अब्तर हो गए।

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गए मौसम का डर बांधे हुए है।

परिंदा अब भी पर बांधे हुए है।

मुहब्बत की कशिश भी क्या कशिश है,

समंदर को कमर बांधे हुए है।

हकीकत का पता कैसे चलेगा,

नज़ारा ही नज़र बांधे हुए है।

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आसमा धरती समंदर किसलिए, ये तमाशा बन्दा परवर किसलिए।

कौन सी मंजिल पे जाना है हमें,ये सर ओ सामान ये लश्कर किसलिए।

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याद करने का बहाना चाहिए,आरजू को इक ठिकाना चाहिए।

कुछ नही झूठा दिलासा ही सही ,हौसले को आब ओ दाना चाहिए।

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मुय्याँ kaid की मुद्दत नही है, रिहाई की कोई सूरत नही है।

ठहर जाता हूँ हर शये से उलझ कर , अभी बाज़ार की आदत नही है।

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