बावस्तगी चलती रहे…………

पता ही नहीं चला कब 10 साल गुजर गए…… मुट्ठी से रेत की तरह…….शायद उससे भी ज्यादा तेज……..ऐसे कि पलकें बंद कीं और खोलें तो एक दशक गुज़र जाए…! आज अंजू के साथ 10 साल का सफ़र पूरा हुआ है….1999 में जब हमारी शादी हुयी थी तो हम महज 24 बरस के थे वो उम्र कि जब बच्चे अपने कैरियर को शेप दे रहे होते हैं…..हमने अपना कैरियर बनाया और झट से शादी कर डाली……..! मंसूरी से ट्रेनिंग ख़त्म हुयी और उसके तुरंत बाद हम परिणय सूत्र में बंध गए……! इस बीच हमने जिंदगी के तमाम उतार चढ़ाव देखे….कुछेक मुश्किलें जरूर आयीं मगर ईश्वर की कृपा से सब कुछ ठीक ठाक निबट गया………..एक सर्विस से दूसरी और फिर दूसरी से तीसरी……..अंतत: देश की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा में ….. दो मासूम बेटियां………कानपुर- लखनऊ-बरेली-गाज़ियाबाद के बाद अब गोरखपुर प्रवास…………..! खैर फिर आता हूँ अपनी शरीके – हयात अंजू पर………! आदमी को अपने जीवन के नाज़ुक क्षणों में किसी ऐसे सहारे की ज़रुरत होती कि जब वो बिलकुल किसी औपचारिकताओं में नहीं बंधना नहीं चाहता………खुल जाना चाहता है…….फूट पड़ना चाहता है……..हर एक सुख दुःख को बाँटना चाहता है…….अंजू के साथ मेरा यही सब कुछ रहा….हर नाज़ुक वक़्त में वो मेरे साथ रही……………सुख-दुःख साथ महसूस किये………! मैं इस मोड़ पर आकर महसूस करता हूँ कि अच्छा हमसफ़र मिलना भी किस्मतों की ही बात होती है और निश्चित रूप से मैं इस मामले में खुद को सौभाग्यशाली समझ सकता हूँ कि अंजू मेरे साथ है…….! हम दोनों सरकारी सेवाओं में रहे मगर इतना किया कि घर -ऑफिस को दूर दूर रखा……….न घर में ऑफिस की बात की और न ही ऑफिस में घर की बात को आने दिया ………इस सिद्धांत को पालने के अलावा “इगो” नहीं पनपने दिया जो घर को नरक बनाने में सबसे बड़ा कारक होता है….! बस ऐसे ही दस साल पूरे हो गए……. आगे सफ़र जारी है………! 10 साल पहले मेरे दोस्त मनीष ने मुझे मेरी शादी पर एक शेर लिख कर दिया था, शेर तो बशीर बद्र साहेब का था मगर कुछ बदलाव मनीष ने अपने हिसाब से कर दिए थे ……वो शेर फिर से याद आ गया तो लिख दे रहा हूँ……… कभी सुबह की धूप में झूम कर, कभी शब के फूल को चूम के यूँ ही साथ साथ चलो सदा कभी ख़त्म तुम्हारा सफ़र न हो ! मनीष का शेर सही साबित करने की कोशिश – ज़द्दोजहद ही तो है ये…………..! औपचारिक ज्यादा नहीं होना चाहता……….बहुत लिख पाना इस बारे में मेरे लिए मुश्किल है……..सफ़र को आसान और खूबसूरत बनाने के लिए ईश्वर- परिजन- माता- पिता, भाई- बहन- मित्रों की भूमिका का शुक्रगुज़ार हूँ………! बिना किसी लाग लपेट के ग़ज़ल का वही एक शेर जो दस साल पहले मैंने अपनी शरीके हयात को नजराने में दिया था आज फिर दोहराने का जी किया है, सो दोहरा रहा हूँ……! वो तितली की तरह पल पल ठिकाने दर ठिकाने तुम, मगर हम भी अज़ब साइल हर एक गुंचे से बावस्ता……..! यह बावस्तगी यूँ ही चलती रहे……खुदा करे!

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