फिर कमसिन होली आई है……..!
हिन्दवी के उस्ताद और भारत की पहचान गंगा जमुनी संस्कृति की अलख जगाने वाले अमीर खुसरो साहब रंगों का जलवा कुछ यूँ बिखेर रहे हैं…………….
मोहे अपने ही रंग में रंग दे
तू तो साहिब मेरा महबूब ए इलाही
हमारी चुनरिया पिया की पयरिया
वो तो दोनों बसंती रंग दे
जो तो मांगे रंग की रंगाई मोरा जोबन गिरवी रख ले
आन पारी दरबार तिहारे
मोरी लाज शर्म सब रख ले
मोहे अपने ही रंग में रंग दे
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,
गले मुझको लगा लो ऐ दिलदार होली में
बरसते हो तारों के फूल छिपे तुम नील पटी में कौन?
तुम अपने रँग में रँग लो तो है
तन के तार छूए बहुतों ने, मन का तार न भीगा,
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
सिंदूरी मंजरियों से है अंबा शीश सजाए,
नयनों के डोरे लाल गुलाल-भरी खेली होली !
तोहरा रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचौली
मगर अब साजन कैसी होली !
तन के सारे रंग भिखारी, मन का रंग सुहाग
बाहर बाहर पूरनमासी अन्दर अन्दर आग
अंग अंग लपटों में लिपटा बोले था एक बोली
मगर अब साजन कैसी होली !
रंग बहुत शर्माए
कुछ ऐसी भीगी पापी काया
तूने इक इक रंग में
कितनी बार मुझे दोहराया
मौसम आये मौसम बीते मैंने आँख न खोली
मगर अब साजन कैसी होली !
रंग बहाना रंग जमाना
रंग दीवाना
रंग में ऐसी डूबी साजन
रंग को रंग ना जाना
रंगों का इतिहास सजाये रंगों रंगों बोली
मगर अब साजन कैसी होली !युवा शायर और मेरे अज़ीज़ शायर अकील नोमानी भी लड़खड़ाते क़दमों के साथ कह रहे हैं……..
दिल में बजता है प्यार का संगीत, रूह फागुन के गीत गाती है,
जब बिखरते हैं रंग होली के, जिंदगी झूम झूम जाती है !
और……….,
आइये होलिका दहन के साथ, नफरतों को जला दिया जाये !
अबके होली में दुश्मनों को भी, प्यार करना सिखा दिया जाये !!कुंवर बेचैन जीवन की सच्चाइयों से रु ब रु होते हुए तल्ख़ मिजाजों में कहते हैं……….
प्यासे होंठों से जब कोई झील न बोली बाबू जी
होली आयी तो मचा होली का हुडदंग,
दुश्मन मिलते बदल कर गिरगिट जैसा रंग
गिरगिट जैसा रंग लबों पे हंसी सुहानी
हम अब्दुल्ला हुए देख शादी बेगानी
कहें ‘बिप्लवी’ चढ़ी भँग की ऐसी गोली
हुआ मुहर्रम अपना उनकी होली हो ली………….नहीं मानेंगे…….. कह रहे हैं एक ग़ज़ल और पेश करूंगा…….तो लीजिये बचिए…..
जुटा लें एक जहती का सरो सामान होली में
मिले कुछ इस तरह इंसान से इंसान होली में
किसी को हाथापाई करके रंगों में डुबो डाला
तो जैसे जा रहा है मार कर मैदान होली में
नज़र से रंग बरसे पैरहन से खुशबुएँ निकलें
मगर वो शोख खुद से लग रहा अनजान होली में
हवाएं हाथ पकडे हैं घटायें घर बुलाती हैं
हुयी है किस तरह आवो हवा शैतान होली में
हमारी ‘बिप्लवी’ तहजीब ही इंसानियत की है
भुला दें रंजिशें पिछली ये हो उन्वान दें होली में
मेरे अपने शहर मैनपुरी के शायर दोस्त फ़साहत अनवर साहब ने भी होली का रंग कुछ यूँ बिखेरा है……..
त्यौहार है ये खुशियों का क्या मस्त सुहाना है,
जी चाहे जिसे रंग दो होली का बहाना है !
गुजियों या अनरसों से भरता ही नहीं मनवा,
पकवान ये जी भर के जन जन को खिलाना है !
पोस्ट का अंत अपने जिगरी यार मनीष की एक रचना से कर रहा हूँ जो भाँग के नशे में उछल उछल कर कह रहे हैं……..
रंग लाल गुलाल का बादल है,मदमाती आँख का काजल है
कुछ हवा नशे में चूर सी है,हर सांस में महका संदल है
पत्ता पत्ता बौराया है, हर ज़र्रा जोश में आया है !
……रंगों की वो तकरार उधर,देखो टेसू की धार उधर
क़दमों का भी है हाल अज़ब,एक बार इधर इक उधर
क्या बात बताएं होली की, मदहोश फज़ाएँ होली की…….
गुलमोहर की रंगत का मौसम,रंगीन शरारत का मौसम
मौला मेरे फिर फिर आये,रंगों की इबादत का मौसम !
यह प्रस्तुति मुझे यहीं ख़त्म करने की इज़ाज़त दें…………इतनी लम्बी पोस्ट लिखने की आदत नहीं रही………होली पर आप सभी को मेरी शुभकामनायें…………..इस उम्मीद के साथ
टेसू की रंगत बिखर गयी फिर कमसिन होली आई है……..”