अपने लहजे और फ़िक्र-ओ- फ़न के लिए उर्दू अदब में हमेशा याद किए जाएंगे मुज़फ़्फर हनफ़ी साहब

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फ़र्क़ नहीं पड़ता हम दीवानों के घर में होने से
वीरानी उमड़ी पड़ती है घर के कोने कोने से

अपनी इस कम-ज़र्फ़ी का एहसास कहाँ ले जाऊँ मैं
सुन रक्खा था उलझन कुछ कम हो जाती है रोने से

”मुज़फ़्फ़र हनफ़ी आधुनिक उर्दू ग़ज़ल के बड़े शायर हैं। अपने लहजे और तेवर में सबसे अलग मुज़फ्फ़र हनफ़ी को नई बात पुराने अंदाज़ में और पुरानी बात नए असलूब में कहने का हुनर खूब आता है।”
– गोपीचंद नारंग

मशहूर शायर और लेखक मुज़फ़्फ़र हनफ़ी साहब बीती 10 अक्टूबर को नहीं रहे। अदब में वह कादिर उल कलाम शायर के रूप में जाने जाते थे। उनकी पहचान एक ऐसे शायर की थी जिसे किसी भी खयाल को शेर में बांधने का हुनर आता था। ज़बान और बयान दोनों पर  मुकम्मल पकड़ रखने वाले शायर और लेखक मुज़फ़्फ़र हनफ़ी साहब की गिनती आधुनिक शायरी की बुनियाद रखने वालों में होती है।

ये मुज़फ्फर हनफ़ी ही थे जिन्होंने यह कहना शुरू किया कि ग़ज़ल अब वस्ल की रात, महबूब की जुल्फें, हिज्र, सनम की बेरुखी, रुख़सार, हुस्न और इश्क़ के सांचे से निकल चुकी है। हनफ़ी के अनुसार ग़ज़ल का मतलब है कम से कम अल्फ़ाज़, मतानत, संजीदगी और शराफ़त से अपनी बात कहना। वह हमेशा कहते थे  ‘‘ग़ज़ल के सिर औरतों से गुफ्तगू करने का दोष न मढ़ें, दुनिया का कोई भी मौजूं विषय ग़ज़ल का शेर हो सकता है।” उन्होंने उर्दू भाषा में 90 से अधिक विभिन्न विषयों पर लिखी।

रोती हुई एक भीड़ मिरे गिर्द खड़ी थी
शायद ये तमाशा मिरे हँसने के लिए थाकुछ रात का एहसाँ है न सूरज का करम है
ग़ुंचा तो बहर-हाल बिकसने के लिए था

1 अप्रैल 1936 को खंडवा मध्य प्रदेश में जन्मे उर्दू अदब के बुलंद क़ामत साहित्यकार और शायर मुज़फ्फ़र हनफ़ी का असली नाम अबुल मुज़फ़्फ़र था | हालाँकि उनका असली वतन फ़तेहपुर उत्तर प्रदेश था | उन्होंने उर्दू में एम.ए. और पीएच. डी. करने के अतिरिक्त एलएल.बी. भी किया। मात्र 14 साल की उम्र से ही मुज़फ़्फ़र साहब ने ग़ज़ल कहने लगे थे। उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में 1700 से अधिक ग़ज़लें कही।  मुज़फ़्फ़र हनफ़ी का पहला शेरी मजमुआ ‘पानी की ज़बान’ था, जो 1967 में प्रकाशित हुआ। यह मजमुआ हिन्दुस्तान में आधुनिक शायरी की पहली किताब के रूप में जाना जाता है।

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी ने उर्दू साहित्य की बहुत सेवा की। 1949 से ही उन्होंने  भिन्न बाल पत्रिकाओं में कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया था। हनफ़ी जब छठी  दर्जे में थे तब उर्दू में शाया होने वाली ‘खिलौना’ मैगजीन में उनकी कहानी छपी। ग्याहरवीं कक्षा में उन्होंने केस ऑफ रोलिंग बोन्स नाम के जासूसी नॉवेल का उर्दू में अनुवाद किया। इसके बाद ‘खिलौना’ पत्रिका में लगातार उनकी कहानियां छपती रहीं।

1959 में मुज़फ़्फ़र हनफ़ी ने खंडवा से ”नए चिराग़” के नाम से मासिक पत्रिका प्रकाशित करना शुरू किया। नए चिराग़ को उस दौर के बड़े सहित्यकारों ने बहुत सराहा। उन्होंने यह मैगजीन अपने दोस्त काजी हसन रज़ा के साथ प्रकाशित किया था। यह मैगज़ीन अठारह अंक छपने के बाद बंद हो गई। फ़िराक़ गोरख़पुरी, शाद आरफ़ी, अब्दुल हमीद अदम, राही मासूम रज़ा, खलील उर रहमान आज़मी, एहतेशाम हुसैन, क़ाज़ी अब्दुल वदूद, नयाज़ फतहपुरी, निसार अहमद फ़ारूक़ी और कई लिखने वाले इस पत्रिका में प्रकाशित होते थे। 

यूँ तोड़ न मुद्दत की शनासाई इधर आ
आ जा मिरी रूठी हुई तन्हाई इधर आ

मुझ को भी ये लम्हों का सफ़र चाट रहा है
मिल बाँट के रो लें ऐ मिरे भाई इधर आ

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी ने 1960 से भोपाल में रहते हुए 14 साल तक मध्य प्रदेश के फारेस्ट डिपार्टमेंट में काम किया। भोपाल में रहते हुए उनकी मुलाक़ात दुष्यंत कुमार से हुई। मुज़फ़्फ़र हनफ़ी दुष्यंत को ग़ज़ल की तरफ लाये। 1974 में मुज़फ़्फ़र हनफ़ी दिल्ली गये और नेशनल कौंसिल ऑफ़ रिसर्च एंड ट्रैनिंग में नेशनल कौंसिल ऑफ़ रिसर्च एंड ट्रेनिंग में असिस्टेंट प्रोडक्शन ऑफ़िसर पद पर 2 साल तक काम किया।  फरवरी 1978 में जामिआ मिलिआ यूनिवर्सिटी में उर्दू के प्रोफ़ेसर नियुक्त हुए और 1989 तक जामिआ में रीडर के पद पर काम किया। सन् 2001 में इस पद से रिटायर होने के बाद से वे  दिल्ली में रहते हुए साहित्य-रचना में रत रहे।

काँटों में रख के फूल हवा में उड़ा के ख़ाक
करता है सौ तरह से इशारे मुझे कोई

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी ऐसे शायर थे जिन्हें हिंदुस्तान और हिंदुस्तान से बाहर मुशायरों में अक्सर बुलाया जाता है और पसन्द किया जाता है। यह अलहदा है कि वे मुश्किल से ही मुशायरे में शिरकत करते थे। वे अपना वक़्त लिखने पढ़ने में लगाने में जियादा दिलचस्पी रखते थे।

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी की अदबी दुनिया बहुत बड़ी है। उन्होंने अगथा क्रिस्टी का नोवेल अनुवाद (1954), बंदरों का मुशायरा (1954), पानी की ज़ुबान (शायरी 1967), तीखी ग़ज़लें (शायरी 1968), अक्स रेज़ (नज़म 1969), सरीर-ए-खामा (शायरी 1973), दीपक राग (शायरी 1974), यम-बे-यम (शायरी 1979), तिलस्म-ए-हरूफ़ (शायरी 1980), खुल जा सिम सिम (शायरी 1981), पर्दा सुकहन का (शायरी 1986), या अखी (शायरी 1997), परचम-ए-गर्दबाद (शायरी 2001), हाथ ऊपर किए (शायरी 2002 ), और कई दूसरी पुस्तकों को लिखा।  रूहे ग़ज़ल (1993) में  उन्होंने  693 शौरा की 2200 ग़ज़लें शामिल कीं। यह उर्दू ग़ज़ल का अब तक का सब से बड़ा इंतिखाब है। ज़ाहिर है कि लेखक सम्पादक मुज़फ्फ़र हनफ़ी ने उर्दू साहित्य की भिन्न-भिन्न शैलियों में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने मीर तकी मीर, हसद मोहानी, मोहम्मद हुसैन आजाद, शाद आरफ़ी आदि पर उन्होंने विभिन्न मोनोग्राफ भी लिखे हैं।

वैसे तो उनकी शख़्सियत अवार्ड्स की मोहताज नहीं है फिर भी उन्हें  मुख़्तलिफ़ रियासती अकादमियों और राष्ट्रीय संस्थाओं से 45 से ज़्यादा पुरस्कार मिले हैं जिनमें इफ़्तिख़ारे-मीर सम्मान (लखनऊ), परवेज़ शाहिदी अवार्ड (कोलकाता), पं. दत्तात्रेय कैफ़ी राष्ट्रीय अवार्ड, गालिब अवार्ड (दिल्ली), सिराज मीर ख़ाँ सहर अवार्ड (भोपाल), भारतीय भाषा परिषद (कोलकाता) के रजत जयन्ती सम्मान के अतिरिक्त देश की कई संस्थाओं के पुरस्कार शामिल हैं।

ये उनके अदबी कद का ही जादू है की मिज़गाँ कलकत्ता, सफीर-ए-उर्दू लंदन, इंतिसाब सिरोंज, सदा ये उर्दू भोपाल, बीसवीं सदी देहली, रोशनाई कराची, चहार सू रावलपिंडी, कन्टेम्प्रोरी वाइब्स चंडीगड़ ने मुज़फ़्फ़र हनफ़ी के फ़न पर नंबर और गोशे निकाले हैं। हनफ़ी के पसंदीदा शायर ग़ालिब रहे। पसंदीदा अफ़सानानिगारों में वे सआदत हसन मंटो को मानते थे।

अंदर से अच्छे होते हैं अक्सर आड़े तिरछे लोग
जैसे अफ़साना मंटो मन्टो का,जैसे शेर मुज़फ़्फ़र का

अपने उस्ताद शाद आरफ़ी से उन्होंने महज 14 महीने ग़ज़ल पर पत्राचार से इसलाह ली और उनके इंतकाल के बाद 1964 से अब तक उन पर वह 15 किताबें लिख चुके हैं। वे कहा करते थे कि अभी उस्ताद का एक हक़ अता नहीं हुआ है।

अदबी अवार्ड्स का विवादों के सातः चोली दमन का साथ रहा है। 1982 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और इक़बाल सम्मान से उनका नाम कटवाने की बातें भी सामने आयीं। पद्मश्री अवार्ड के लिए जब उनका नाम आगे चलाया गया तो यह कहते हुए उन्होंने मना कर दिया कि अब वक्त निकल चुका, यह तो बहुत पहले होना चाहिए था। उनका माना था कि अपनों से जो शोहरत मिल चुकी, वही इफरात है। जब शहरयार को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया था, उर्दू हलकों में ये चर्चाएं खूब चलीं कि इस पर तो पहला हक मुज़फ़्फ़र हनफ़ी का है।

उनके बारे में मुनव्वर राना कहते हैं कि “मुज़फ़्फ़र साहब की हर ग़ज़ल अनोखी उपज और हुनरमंदी का सबूत देती है उनका हर शेर विश्वास और ज़िन्दगी करने की अलामत बन जाता है।”

मयंक अवस्थी कहते हैं कि ” हर शायर ग़ज़ल की तलाश करता है लेकिन हनफ़ी साहब इकलौते शायर हैं जिनकी तलाश ग़ज़ल खुद करती है।”

तुफैल चतुर्वेदी ने उनके बारे में लिखा है कि “मुज़फ्फ़र हनफ़ी साहब ग़ज़ल के दरबार के वो अमीर हैं कि उनसे दरबार ही धन्य नहीं है बल्कि उनकी किसी भी महफ़िल में मौजूदगी महफ़िल के सारे लोगों को बाशऊर बना देती है।

गोपी चंद नारंग लिखते हैं कि ”मुज़फ़्फ़र हनफ़ी उन शायरों में हैं जो अपने लहजे और आवाज़ से पहचाने जाते हैं। तबियत की रवानी की वजह से उन के यहाँ ठहराव की नहीं बहाव की कैफ़ियत है। किसी शायर का अपने लहजे और अपने तेवर से पहचाना जाना ऐसा सौभाग्य है जिस को कला की सब से बड़ी देन समझना चाहिए।”

अपने अरूज़े-फ़िक्रो –फ़न के लिये हनफ़ी साहब को उर्दू अदब में हमेशा याद किया जाएगा। उनकी शिनाख्त वे खुद हैं –

इस खुरदुरी ग़ज़ल को न यूँ मुँह बना के देख
किस हाल में लिखी है मिरे पास आ के देख

ठप्पा लगा हुआ है ‘मुज़फ़्फ़र’ के नाम का
उस का कोई भी शेर कहीं से उठा के देख

कुछ अशआर और देखिए- 

ग़ौग़ा खटपट चीख़म धाड़
उफ़ आवाज़ों के झंकाड़

रात घना जंगल और मैं
एक चना क्या फोड़े भाड़

मजनूँ का अंजाम तो सोच
यार मिरे मत कपड़े फाड़

ज़ुल्मत मारेगी शब-ख़ून
रौशनियों की ले कर आड़

अपना गंजा चाँद सँभाल
मेरे सर पर धूल न झाड़

आख़िर तुझ को मानेंगे
नक़्क़ादों को ख़ूब लताड़

देखो कब तक बाक़ी हैं
दरिया जंगल और पहाड़

हमदम-ए-देरीना हँस-बोल
यादों के मुर्दे न उखाड़

फिर सूरज से टकराना
धरती में तो पंजे गाड़