भूपेन हज़ारिका: लोगों के दिलों की आहट सुन लेने वाले कलाकर

‘‘वो शायर जिसका नाम भूपेन हज़ारिका है, कितनी आसानी से आवाम के दिलों की आहट सुन लेता है। उन्हें आवाम का शायर कहना जायज है। जिस व्यक्ति की बात करते हैं, लगता है, जैसे वो खुद कह रहे हैं। उसके लबों से निकली आह अपने आप शायर के होठों का मिसरा बन जाती है। उसमें कोई फ़ासला नहीं रहता। जैसे, वो ब्रह्मपुत्र में नाव लेकर जाते हुए मांझी की बात करते हैं, तो खुद मांझी के भाव से बात करते हैं। उम्मीद और आशा भूपेन दा के हाथ से कभी नहीं छूटती, न लोक-गीतों में जो वो गाते हैं, न नज्मों से जो वो लिखते हैं और कम्पोज करते हैं। यहाँ तक की तन्हाई में वो अकेला महसूस नहीं करते, उनका साया साथ रहता है, उम्मीद की ज्योति जलाये रखता है। ‘’
-गुलज़ार 

भूपेन हज़ारिका उन विरले कलाकारों में से एक हैं जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व से लोक संस्कृति की एक अलग सुगंध उठती है। भूपेन के गीतों को सुनिए तो लगता है कि धीमी आंच पर असमिया चाय उबल रही है और अपनी मीठी महक से पूरे वातावरण को सुगंधित कर रही है। उनका गीत-संगीत लोक संस्कृति, लोक संगीत, सभ्यता, इतिहास, मानवता और प्रकृति की तमाम परिधियों को अनायास स्पर्श करता हुआ दिखता है।

‘दिल हूम हूम करे ..., गंगा तुम क्यों बहती हो ....  जैसे कितने ही गीत मैंने अपने विद्यार्थी जीवन में सुने थे। तब समझ विकसित नहीं थी लेकिन इन गीतों का आकर्षण इन्हें बार-बार सुनने पर विवश करता था। ये गीत अब सुनता हूं तो महसूस होता है कि एक सजग और संवेदनशील रचनाकार अपनी पहचान, अपनी अस्मिता, अपनी सभ्यता को किस हद तक अपने सृजन में ढाल सकता है। 

भूपेन दा उन विरले कलाकारों में से हैं जिन्होंने अपनी जातीय सभ्यता, संस्कृति, समाज को अपनी रचनाओं में ढाला और उन्हें  क्षेत्र -क्षेत्रोत्तर ही नहीं बल्कि देश -देशोत्तर बना दिया। उनके संगीत में असमी संस्कृति सांस लेती नज़र आती है, ब्रह्मपुत्र कल-कल बहती नज़र आती है। बिहू, बन गीत, चाय बागान, श्रमिक और ब्रह्मपुत्र....... ये भूपेन हज़ारिका के संगीत के प्रमुख अवयव हैं। वे असम के हैं ज़रूर लेकिन वे अपनी रचनाओं के माध्यम से अखिल भारतीय चेतना के स्वर बन जाते हैं। यह आसान नहीं है कि असमी संगीत में ढला गीत ‘बूकू हूम हूम करे....’  ‘दिल हूम हूम करे’ हो जाने के बाद भी उतना ही कर्णप्रिय  प्रभावी बना रहता है। राजस्थानी वाद्य यंत्रों पर गाये गए इस गीत में व्यक्त पीड़ा अपने मूल स्वरूप को नहीं छोड़ती।

भूपेन हज़ारिका जिस शैली में गाते हैं उसे ‘जिबोन मुखी गान’ शैली कहा जाता है। इस शैली में रोजमर्रा की घटनाओं को संगीत में डाला जाता है। उनका ‘एकती पता दुती कुरी’ और ‘मानुष, मानुषोर जोनो’ जैसे गीत इस शैली के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण माने जा सकते हैं। उन्होंने असमिया के साथ-साथ बंगला, हिंदी समेत कई भाषाओं में गाया।

असमी में तो उनके स्तर का कोई और संगीतकार दूर-दूर तक नज़र नहीं आता। यदि हम हिन्दी फिल्मों में उनके अवदान पर चर्चा करें तो पता चलता है कि हिंदी फिल्मों में उनका सफ़र ‘आरोप’ (1974) से होता है। इस फिल्म का एक गीत ‘नैनो में दर्पण है...’ बेहद कर्णप्रिय गीत है, जिसे लताजी और  किशोर दा  ने गाया है। इस गीत में लता जी की गायकी की दिव्यता को महसूस किया जा सकता है। इसी क्रम में ‘मेरा धर्म मेरी मां’ का नाम लेना अत्यंत उल्लेखनीय है। यह फिल्म को नेफा का नाम अरुणाचल प्रदेश किए जाने पर केंद्रित है। भारतीय अस्मिता को जगाती इस फिल्म का एक गीत है ‘अरुणाचल हमारा’ जिस भूपेन दा ने गाया भी, लिखा भी और संगीतबद्ध भी किया। यह ऐतिहासिक गीत यूँ ही नहीं लिखा जा सकता। इस गीत को सुनने पर भूपेन दा का विराट व्यक्तित्व सामने नज़र आता है। इसमें उन्होंने अरुणाचल का लोक संगीत प्रयोग किया है।
 
हिंदी फिल्मों में उनके संगीत को कल्पना लाजमी ने बेहद खूबी के साथ इस्तेमाल किया है। कल्पना लाजमी की ‘एक पल’(1985) में भूपेन दा का संगीत था। इस फिल्म में लता जी ने दो गाने गाए। ‘चुपके चुपके हम पलकों में कितनी सदियों से’ और ‘जाने क्या है जी डरता है’। दोनों अत्यंत खूबसूरत गीत हैं। ‘रुदाली’,  भूपेन दा की सर्वाधिक चर्चित संगीतबद्ध फिल्म थी। यह फिल्म भी कल्पना लाजमी ने बनाई। इसमें गुलज़ार ने भूपेन दा के असमिया गीत ‘बुकु हुम हुम करे’ का हिंदी रूपांतरण ‘दिल हूम हूम करे’ लिखा जिसे लता जी और भूपेन दा ने गाया। 

इसी फिल्म का एक गीत था ‘समय ओ धीरे धीरे चलो’ जिसे राजस्थानी संगीत में कंपोज किया गया है। इस फिल्म का एक और अद्भुत गीत है ’झूठी मूटी मितवा आवन बोले’ जिसे लता जी ने बहुत ही आकर्षक तरीके से गाया है। कल्पना लाजमी की फिल्म ‘दमन’ और ‘दरमियां’ का भी संगीत भूपेन दा ने दिया। दमन में भूपेन दा का गाया हुआ ‘गुमसुम गुमसुम निशा आई .....’ अत्यन्त प्रभावी गीत है। कल्पना लाजमी के साथ उनका भावनात्मक लगाव रहा, तभी तो भूपेन दा ने उनकी एक पल, चिंगारी, क्यों, दमन, दरमियां, रुदाली जैसी फिल्मों में बहुत ही कर्णप्रिय और बोधपरक संगीत दिया है।

 एम.एम.हुसैन की गज़गामिनी, लेख टण्डन की 'दो राहें' और 'मिल गयी मंजिल मुझे', सई परांजपे की 'पपीहा' के अलावा छठ मैया की महिमा, 27 डाऊन और 'आरोप' जैसी फिल्मों में संगीत दिया। उन्होंने ‘साज़’ में भी गीत दिए। भूपेन हज़ारिका ने ‘चिंगारी’ की कहानी भी लिखी। दूरदर्शन के लिए कल्पना लाजमी निर्देशित धारावाहिक ‘लोहित किनारे‘ में भी भूपेन दा ने ही संगीत दिया। प्रसंगवश यह ज़िक्र करना ज़रूरी होगा कि लता जी ने भूपेन दा का बनाया एक गीत ‘जोना कोरे राति, आंखों मी रे मारी’ असमी भाषा में ही गया है जो अद्भुत है। उन्होंने फिल्म ‘गांधी टू हिटलर’ में महात्मा गांधी का प्रसिद्ध भजन ‘वैष्णव जन’ गाया।

भूपेन हज़ारिका के संगीत में असमी लोक संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट रूप से नज़र आता है। कई गीतों में उन्होंने आधुनिक वाद्ययंत्रों के साथ कंपोजीशन तैयार की लेकिन लोक संस्कृति की उपस्थिति वहां भी पूरे प्रभाव के साथ सुनाई पड़ती है। सूरज की पहली किरणों को ज़मीं पर गिरते हुए देखने अनुभव करने के साथ चाय बागानों की उड़ती महक और पार्श्व में ब्रह्मपुत्र के बहाव को जीवंत महसूस करना हो तो भूपेन दा का संगीत सुनिए।

भूपेन हज़ारिका की तुलना हिन्दी फिल्म संगीत के उन संगीतकारों में की जा सकती है जिनके लिए संगीत का अर्थ आत्मा से एकाकार होना है। वे रघुनाथ सेठ, वनराज भाटिया, सपन जगमोहन, हृदयनाथ मंगेशकर सरीखे संगीतकार हैं, जिनका संगीत आत्मा और परमात्मा का मिलन प्रशस्त करता है। भूपेन हज़ारिका पैदा तो ब्रह्मपुत्र के किनारे हुए थे किंतु ज्ञान तो गंगा के किनारे बनारस में ही मिला था तो यह कैसे संभव था कि संगीत का यह विलक्षण कलाकार ‘गंगा महिमा’ न गाता। भूपेन ने गंगा गीत गाकर अपना समर्पण दिखाया। ‘गंगा बहती हो क्यों’ सुनकर श्रोता गंगा की लहरों में कहीं डुबकी लगाने लगता है। हैरत की बात है कि शकीरा जैसी अन्तर्राष्ट्रीय पॉप गायिका ने भी भूपेन हज़ारिका के इस गीत को गाया।
 
भूपेन हज़ारिका ने अपनी कॅरियर में लगभग एक हजार गाने और 15 किताबें लिखीं। उन्होंने सात असमी, एक बंगाली और एक हिन्दी फिल्म का निर्देशन भी किया। एक संगीतकार के रूप में उन्होंने 31 असमी, 14 हिन्दी 15 बंगाली फिल्मों में काम किया। इसके अतिरिक्त कर्बी, बोडो, मिशिंग जैसी जनजातीय भाषी फिल्मों में भी उन्होंने संगीत दिया। उन्होंने बच्चों के लिए ममर-गीत-माते, अ आ क ख, इ नामक कविताएं लिखी। उन्होने अपनी आत्मकथा ‘मोई इती जोजाबोर’ भी लिखी। उन्होंने गुवाहाटी में एक फिल्म स्टूडियो भी स्थापित किया।

भूपेन हज़ारिका का जन्म 08 सितंबर 1926 को सदिया में हुआ। संगीत से उनका लगाव अपनी माँ शन्तिप्रिया हज़ारिका के कारण हुआ जो स्वयं भी गाती थीं। भूपेन दा अपने भाई बहनों में सबसे बड़े थे। ऐसा प्रतीत होता है जैसे गायकी उन्हें ईश्वरीय उपहार के रूप में मिली थी। भूपेन को उनके संगीत गुरुओं ज्योति प्रसाद, विष्णु प्रसाद ने भी निखारा। दस साल की उम्र में ही उन्होंने एक बोरगीत गाया जिसे श्रीमंत शंकर देव ने संगीत बद्ध किया था। इस गीत को ज्योति प्रसाद अग्रवाल ने सुना तो वे अत्यन्त प्रभावित हुए। 

ज्योति प्रसाद अग्रवाल असम सिनेमा और साहित्य के शलाका पुरुष थे। जब 1939 में ज्योति प्रसाद ने जब ‘इन्द्रमालती’ फिल्म बनायी तो उसमें उन्होंने भूपेन हज़ारिका से दो गीत गवाए। भूपेन हज़ारिका की उम्र उस समय महज 12 वर्ष थी। उन्होंने अपना पहला गाना ‘विश्व निजाय नौजवान’ गाया।  1942 में आज़ादी आन्दोलन के दौरान उन्होंने साम्प्रदायिक एकता पर गीत लिखा। 1946 में उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में परास्नातक किया और न्यूयार्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिग्री प्राप्त की। उन्हें शिकागो विश्वविद्यालय से फेलोशिप भी मिली। पढ़ाई पूरी करने के बाद हजारिका ने गुवाहाटी के ऑल इन्डिया रेडियो से जुड़ गए जहाँ वे बंगाली गानों का हिन्दी में अनुवाद कर उनको अपनी आवाज़ देते थे।

अमेरिका में रहने के दौरान वे  जाने-माने अश्वेत गायक पॉल रॉब्सन के संपर्क में आए। पॉल रॉब्सन विद्रोही प्रकृति के कलाकार थे। भूपेन दा को पॉल के साथ गाना गाने पर एक सप्ताह जेल में भी गुजारना पड़ा था। बहरहाल पॉल रॉब्सन ने एक गीत गाया था, ‘ओल्ड मैन रिवर’ जो मिसीसिपी नदी पर था। इस गीत से प्रभावित होकर भूपेन दा ने कालान्तर में ‘ओ गंगा बहती हो’ गाया। भूपेन हज़ारिका को ‘चमेली मेमसाब’ के लिए 1976 में सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।

उनके व्यक्तिगत जीवन की बात करें तो उनकी पहली पत्नी प्रियंवदा पटेल थी। प्रियंवदा से उनकी मुलाकात कोलंबिया यूनिवर्सिटी में हुई थी, 1950 में दोनों ने शादी कर ली। 1953 में वे भारत वापस आ गए। भारत आने पर भूपेन दा ने कुछ दिनों तक गुवाहाटी विश्वविद्यालय में नौकरी की लेकिन कुछ समय बाद ही त्यागपत्र दे दिया। प्रियंवदा से भी उनका मनमुटाव हो गया और दोनों में अलगाव हो गया। बाद में कल्पना लाजमी से उनका भावनात्मक लगाव हुआ। 85 वर्ष की अवस्था में 5 नवम्बर 2011 को भूपेन हज़ारिका का निधन हो गया।

1967-72 के बीच वे असम विधान सभा के सदस्य रहे। भूपेन हज़ारिका को 1977 में पद्म श्री से भी सम्मानित किया गया। उन्हें 1975 में राष्ट्रीय पुरस्कार, 1992 में 'दादा साहब फाल्के' सम्मान मिला। उन्हे भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण (2011) तथा मरणोपरान्त भारत रत्न (2019) से भी सम्मानित किया गया।

वे स्वघोषित यायावर थे। इस यायावरी में उन्होंने असम की समृद्ध लोक संस्कृति को गीतों के माध्यम से समग्रता में पूरी दुनिया में फैलाया। भूपेन हज़ारिका एक सच्चे कलाकार थे। वे जो कहते थे वही जीते भी थे। जाति व्यवस्था के प्रति उनका विद्रोह हमेशा से रहा।

भूपेन हज़ारिका की रचनाधर्मिता में आंचलिकता का पुट है, स्थानीय संस्कृति का प्रभाव है जो सीधे कानों में घुलता चला जाता है। उनकी सर्वस्वीकार्यता और प्रासंगिकता इस तरह भी समझी जा सकती है कि जब पिछले वर्ष अर्थात 2020 में असम में बाढ़ आ गयी और शहरों में घुटनों तक पानी आ गया तो डिब्रूगढ़ के निवासी सैयद अब्दुल्ला का एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें वे पानी पर खड़े होकर गिटार बजाते हुए गीत गा रहे थे जिसके बोल थे ‘लुइतर बोलिया बान’। ये गाना भी भूपेन हज़ारिका का है।

भूपेन दा गीतकार, संगीतकार, गायक तो थे ही असमिया भाषा के कवि, फिल्मों के निर्देशक और संस्कृति के महत्वपूर्ण वाहक भी थे। वे ताउम्र एक सांस्कृतिक दूत बने रहे। उनके संगीत में हमें सांप्रदायिक सौहार्द, सर्वकालिक बन्धुत्व, सार्वभौमिक सहानुभूति, संवेदना का प्रवाह देखने को मिलता है, तभी तो वे जितना असम में लोकप्रिय हैं उतने ही बंगाल में उतने ही बांग्लादेश में और शायद उतने ही भारत के किसी कोने में। संगीत के इस महान शिल्पकार को ‘सुधाकंठ’ यूं ही नहीं कहा गया है । ऐसे विरले कलाकार और उसको जन्म देने वाली असम की माटी, दोनों को शत शत नमन।

Pawan Kumar