हर इक उम्मीद कल पर टल रही है

हर इक उम्मीद कल पर टल रही है
हमारी ज़िन्दगी बस चल रही है

ज’रूरत है बहुत लब खोलने की
तुम्हारी ख़ामुशी अब खल रही है

मिरे हक में नहीं है कोई मंजि’ल
मगर उम्मीद दिल में पल रही है

बड़ी शादाब है ये रात तुमसे
मगर अफ’सोस ये भी ढल रही है

जिसे कहते हैं जन्नत इस जमीं की
उसी वादी में बफर्’ अब जल रही है

इसे तो जीतना था नफरतों को
मुहब्बत हाथ कैसे मल रही है

शादाब = हरा-भरा

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