सुमिरो पवन कुमार

वो साल था 2013, उन दिनों मैं बतौर स्ट्रिंगर अमर उजाला चंदौसी में कार्यरत था। चंदौसी वही जगह है जहां से हिंदी के महान ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार ने अपनी शिक्षा पूरी की है।
उसी शहर में उन्होंने अपनी पहली ग़ज़ल कही और उसी शहर में पहली बार छात्र संपादक के तौर पर अपनी काॅलेज पत्रिका का संपादन भी किया।
वो शहर अमूमन उस शख़्स को उन खास दिनों पर भी याद नहीं करता, जब पूरा देश का साहित्यिक समाज उन्हें याद कर रहा होता है।
मुझे क्योंकि वो पसंद हैं, लिहाज़ा उनके जन्मदिन पर चंदौसी की बेवफ़ाई से नाराज़ होकर एक अच्छी खासी खबर मैंने लिख डाली।
एक सिंतबर का दिन था। सुबह-सुबह कोई साढ़े दस बजे मेरे कार्यालय के नंबर पर फोन की घंटी बजी। दूसरी ओर से आवाज़ आई।

अमर उजाला से बोल रहे हैं।
मैंने जवाब दिया – जी हां, बोल रहा हूं। आप कौन?
उधर से बोले – ये दुष्यंत कुमार के संबंध में खबर किसने लिखी है?
मैं – मैंने ही लिखी है जनाब, कोई ग़लती हो तो बताएं।
उधर से आवाज़ – अच्छी लिखी है, आज के समय में इन मौकों को अख़बार में कोई याद नहीं करता। मैं आपसे मिल सकता हूं।
अब मेरी दिलचस्पी फ़ोन करने वाले शख़्स में बढ़ रही थी।
मैं बोला – हां, मिल सकते हैं, लेकिन आप अपना परिचय तो दें।
उधर से आवाज़ आई – परिचय का क्या करेंगे, साहित्य प्रेमी हूं बस इतना समझ लें।
मैं बोला – वो तो ठीक है, लेकिन इस शिनाख़्त से मैं आपको तलाश तो नहीं कर सकता। कोई नाम तो होगा।
वो बोले – मैं पवन कुमार बोल रहा हूं, डीएम संभल।

अब मेरे लिए दिलचस्पी और ज़्यादा बढ़ गई। नए पत्रकार को यदि सीधे उसकी खबर पर एक आईएएस फोन करे तो वो गदगद होता ही है। मुझे खुशी इस बात की नहीं थी कि कोई डीएम मेरी खबर को पसंद करके फोन कर रहा है।

खुशी इस बात की थी कि डा. अखिलेश मिश्रा भाईसाहब के बतौर एडीएम संभल से जाने के बाद मेरे पास ऐसा कोई शख़्स नहीं बचा था जिसके साथ साहित्यिक चर्चा या शायरी और कविता पर बात हो सके।

पवन जी के फोन करने के बाद वो चिंता ख़त्म हो गई थी। अब मुझे उनसे मिलने का इंतज़ार था। मुलाक़ात का वक़्त मुकर्रर हुआ। उन्होंने कहा कि मैं चंदौसी आता हूं, तसल्ली से बात करेंगे।

वो चंदौसी आए तो हमारी पहली मुलाकात हुई। उसके बात बतौर डीएम और पत्रकार रोज़ाना बातचीत होती ही थी। लेकिन साहित्यिक बातचीत के लिए वक़्त अलग से निकाला जाता था।

उस वक़्त मैं, मैं होता था, और वो, केवल पवन कुमार। यहां से हमारा रिश्ता शुरू हुआ। जो कब पवन जी से मेरे लिए पवन भैया बन गया पता ही नहीं चला।

चंदौसी के गणेश चौथ के मेले में मुशायरा होना था। पवन भैया ने मुझसे पूछा कौन-कौन शायर होने चाहिए। इत्तेफ़ाक से जो शायर मैंने बताए वो सभी पवन जी के पसंदीदा निकले।

उन्हें मेरी साहित्यिक समझ पर थोड़ा भरोसा होने लगा था। इस मुशायरे में उन्होंने मुझे मंच के पीछे की तैयारियों से लेकर मंच तक पर पूरा मौका दिया और दिलवाया। इसके बाद हमारे बीच औपचारिकता लगभग खत्म हो गयी थी।

इसके बाद तो उनकी गाड़ी में बैठकर दौरे पर चले जाना। उनके कार्यालय में बैठकर चाय पीना आम बात थी। इसके बाद मैं ऑन रोल होकर गजरौला स्थानांनरित हो गया और वो बदायूं के डीएम हो गए। लेकिन रिश्ता नहीं छूटा।

गजरौला में रहते हुए उन्होंने अपनी दो किताबें ‘वाबस्ता’ और ‘दस्तक’ मुझे भिजवाईं। दूर होते हुए भी फोन से ताल्लुक़ात बने रहे।
पवन कुमार जी की शायरी के विषय में बड़े शायरों ने बहुत कुछ कहा और लिखा है। अभी मैं उनकी शायरी की समीक्षा करने लायक हूं भी नहीं। लेकिन उनके शेरों में जो संजीदगी और गहराई है वो आपको अपनी ओर खींचती है। मुझे उनके तमाम शेर बहुत अच्छे लगते हैं। मसलन –

शाम हुई तो घर से निकले
जैसे चिड़ियाघर से निकले

सोचता हूं कि शायद घटें दूरियां
दरमियां फ़ासले कुछ बढ़ाते हुए

मज़हब, दौलत, ज़ात घराना, सरहद, गै़रत, ख़ुद्दारी
एक मुहब्बत की चादर को कितने चूहे कुतर गए

हर इक उम्मीद कल पर टल रही है
हमारी ज़िंदगी बस चल रही है

और भी बहुत हैं, इसके अलावा मुझे उनकी एक ग़ज़ल बेहद ज़्यादा पसंद है, वो है –

मेरी मर्जी के मुआफ़िक कुछ भी वो होने न दे
अश़्क आंखों में सजाए और फिर रोने न दे

ये सजा भी अपने जुर्मे इश़्क की क्या खूब है
क़त्ल भी करवाये हमसे, हाथ भी धोने न दे

मैं उनके बारे में जितना लिखूं उतना कम ही लगता है। वो शायरी को इस हद तक जीते हैं कि उसकी कोई थाह नहीं है। वो आम शायरी पसंद लोगों की तरह नहीं। भीड़ से अलग शायर हैं। यही वजह है कि वो मंचों पर कभी आने में दिलचस्पी नहीं दिखाते।
उनका अध्ययन अलग ही क़िस्म का हैं। मुझे अक़्सर याद आती है मेरे विषय में उनकी एक टिप्पणी जब संभल जाते हुए उन्होंने मुझसे कहा – मैं तुम्हारे अंदर अपनी जवानी के दिनों को देखता हूं। मैं आईएएस न होता तो एक पत्रकार होता, किसी अच्छे अख़बार का संपादक होता।
ये शायद पहला आईएएस है जो पत्रकार बनने की इच्छा रखता होगा। नहीं तो अमूमन लोग पत्रकार नहीं बनना चाहते। मेरे और उनके जन्म दिन की तिथियों में महज़ बीस दिनों का अंतर है।
एक ही महीने की पैदायीश हैं। शायद इसलिए भी मैं उन्हें अपने नज़दीक मानता हूं। आज उनका जन्मदिन है। उन्हें बहुत मुबारक। वो लिखते रहें और हम जैसे पढ़ते रहें।

By अभिनव ‘अभिन्न’