“साँसों में लोबान जलाना आखिर क्यों “-2

एक अरसे बाद मैंने दो तीन दिनों पहले अपने ब्लॉग पर अपनी नयी ग़ज़ल पोस्ट की ……..मैं जब भी ग़ज़ल लिखता हूँ तो सबसे पहले जिन लोगोंको उसे सुना कर प्रतिक्रिया लेता हूँ उनमे अकील नोमानी, मनीष, अंजू, जोनी, सुमति शामिल होते हैं….ये वे लोग हैं जिनसे मुझे मेरी किसी भीरचना पर त्वरित प्रतिक्रिया मिलती है ….ये प्रतिक्रियाएं अच्छी -बुरी दोनों तरीके की होती हैं मगर होती एक दम निष्पक्ष हैं………………”साँसोंमें लोबान जलाना आखिर क्यों ” पर इन सबकी प्रतिक्रियाएं मुझे उत्साह बढ़ने वाली रही….
मैंने ये ग़ज़ल अपने एक शायर दोस्त फ़साहत अनवर को भी एस एम् एस के जरिये भेजी…उन्होंने मुझे स्वरूप कमेन्ट भेजा की उन्हें इस ग़ज़लकी ज़मीन इतनी अच्छी लगी की उसी काफिये पर उन्होंने चार पांच शेर लिख डाले ……..अनवर साहब के वो शेर आपके हवाले कर रहा हूँ गौरफरमाएं……….

मुझसे हर पल आँख चुराना आखिर क्यों !
दुश्मन के घर आना जाना आखिर क्यों !!

छोटे तबके वाले भी तो इंसान हैं,
महफ़िल में उनसे कतराना आखिर क्यों !!

मेरे उसके जुर्म में कोई फर्क नहीं,
फिर मुझ पर इतना जुर्माना आखिर क्यों !!

मुझको तो हर पल पीने की आदत है,
उसकी आँखों में मैखाना आखिर क्यों !!

मुट्ठी में जो बंद किये हैं सूरज को,
उसको जुगनू से बहलाना आखिर क्यों !!

अनवर तेरी गज़लों के सब दीवाने हैं,
तू है ग़ालिब का दीवाना आखिर क्यों !!

एक सी ज़मीन पर दो ग़ज़लें पढना सचमुच अच्छा एहसास रहा.

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