मुड़ मुड़ के देखता हूं

भारत भूषण पंत

फ़िक्र को गिरहों में बांधने का लाजवाब  हुनर था भारत भूषण पंत में…

आज अगर शायर भारत भूषण पंत हमारे बीच होते तो हम उनका 62 वां जन्मदिन मना रहे होते, मगर हमेशा चाहा हुआ होता कहां है। पिछले नवंबर में ही वे इस दुनिया को अलविदा कह गए। पंत जी आज हमारे बीच में नहीं हैं लेकिन उनकी शायरी आज भी उनके यहीं कहीं होने का एहसास कराती है। वैसे भी पंत साहब जब इस दुनिया के हिस्सा थे तो भी कहाँ बोलते थे, उनकी शायरी ही उनकी ज़बान होती थी।

कभी वे मुशायरों के गलाफाड़ शायरों की जमात में शामिल नहीं हुए। एक तहज़ीबी सिलसिला है, सलीका है उनकी शायरी को सुनने का, जो सुनने से ज़्यादा समझने के लिए है। मुझे याद है कि बहुत पहले मेरे मित्र मनीष शुक्ला ने मुझे फोन पर एक शेर सुनाया था-

वो दर्द भरी चीख मैं भूला नहीं अब तक
कहता था कोई बुत मुझे पत्थर से निकालो

सचमुच ये शेर इतना शानदार था कि मैंने मनीष से इसके शायर के बारे में पूछा। मनीष ने बताया कि यह शेर भारत भूषण पंत जी ने लिखा है। इस शेर को सुनने के बाद ही मनीष शुक्ला उन दिनों पंत जी के नज़दीक आए और ये नज़दीकियां पंत जी की अंतिम साँस तक बनी रहीं। पंत जी के अंतिम दिनों तक मनीष शुक्ला उनके साथ रहे। 

मुझे याद है कि जीवन की विपदाओं और संघर्षों से लड़ते हुए पंत जी अपने जीवन के आखिरी दिनों में शराब, शायरी और सिगरेट तक सीमित होकर रह गए थे। ऐसे में मनीष शुक्ला ही उनके लिए बातचीत और साथ देने का वसीला होते थे। मनीष के साथ ही वे कई बार मेरे घर पर भी आते। जब वे आते तो देर रात तक उनकी शायरी का लुत्फ़ उठाया जाता।

फिर से कोई मंज़र पसे-मंज़र से निकालो
डूबे हुए सूरज को समंदर से निकालो

लफ़्ज़ों का तमाशा तो बहुत देख चुके हम
अब शेर कोई फ़िक्र के महवर से निकालो

गर इश्क़ समझते हो तो रख लो मुझे दिल में
सौदा हूँ अगर मैं तो मुझे सर से निकालो

अब चाहे मोहब्बत का वो जज़्बा हो कि नफ़रत
जो दिल में छुपा है उसे अंदर से निकालो

मैं कब से सदा बन के यहाँ गूँज रहा हूँ
अब तो मुझे इस गुम्बदे-बेदर से निकालो

वो दर्द भरी चीख़ मैं भूला नहीं अब तक
कहता था कोई बुत मुझे पत्थर से निकालो

ये शख़्स हमें चैन से रहने नहीं देगा
तन्हाइयां कहती हैं इसे घर से निकालो ।।

ख़ुद पर जो एतमाद था झूठा निकल गया 
दरिया मिरे क़यास से गहरा निकल गया

शायद बता दिया था किसी ने मिरा पता 
मीलों मिरी तलाश में रस्ता निकल गया

सूरज ग़ुरूब होते ही तन्हा हुए शजर 
जाने कहाँ अंधेरों में साया निकल गया

दामन के चाक सीने को बैठे हैं जब भी हम
क्यों बार-बार सूई से धागा निकल गया

कुछ और बढ़ गईं हैं शजर की उदासियाँ 
शाख़ों से आज फिर कोई पत्ता निकल गया

पहले तो बस लहू पे ये इलज़ाम था मगर 
अब आंसुओं का रंग भी कच्चा निकल गया

मुसव्विर अपने फन से खुद भी अक्सर ऊब जाते हैं 
अधूरे ही बना कर कितने मंज़र छोड़ देते हैं

बहुत से ज़ख्म हैं ऐसे जो देखे भी नहीं जाते 
जहाँ घबरा के चारागर भी नश्तर छोड़ देते हैं

कभी जब जमने लगती हैं हमारी सोच की झीलें 
तो हम ठहरे हुए पानी में पत्थर छोड़ देते हैं

इन बैठकों में कभी कभी अभिषेक शुक्ल, हिमांशु, अखिलेश तिवारी, प्रदीप अली भी आ जाते। सिगरेट पीते वक़्त जिस तरह सोफे पर सर को टिकाकर वे देर तक छत की तरफ़ देखते रहते तो लगता था कि फ्रेंच कट दाढ़ी वाले इस इंसान की ज़िंदगी, दर्द और तज़रिबात के सिवा कुछ नहीं।

सबब ख़ामोशियों का मैं नहीं था 
मिरे घर में सभी कम बोलते थे

भारत भूषण पंत का जन्म 3 जून 1958 को हुआ था। उनकी जिंदगी का लंबा हिस्सा बल्कि यूं कहें कि पूरी जिंदगी ही लखनऊ में बीती। उनकी जिंदगी भी दर्द से भरी हुई थी, जब वे बड़े हो रहे थे तो उन्हीं दिनों उन्होंने अपने पिता को बीमारी से जूझते हुए मौत का सफ़र तय करने का हादसा देखा। पिताजी तो चल बसे लेकिन उसके बाद ऐसा लगता रहा कि भारत भूषण पंत कहीं तिल तिल कर अपनी जिंदगी को ख़त्म करते रहे।

बाद में उनकी पत्नी उनका सहारा बनीं लेकिन उन्हें भी कैंसर हो गया और 2014 में वे भी इस दुनिया से विदा हो गयीं। पत्नी के देहांत के बाद पंत जी बिल्कुल अकेले रह गए।काॅपरेटिव की नौकरी से स्वैच्छिक सेवनिवृत्ति उन्होंने पहले ही ले ली थी। उनकी जिंदगी अकेलेपन का शिकार हो गयी। ऐसे में मनीष उनके नज़दीक रहे। मनीष कहते भी हैं कि पंत जी का एक भी शेर झूठा नहीं है वे हर शेर भोगा हुआ लिखते थे और शायद उसे बाद तक भोगते थे।

मुझे आज भी उनका इकहरा जिस्म, फ्रेंच कट दाढ़ी और और सोफे पर अपने सर को टिका कर आंखों को बंद करते हुए सिगरेट के कश लेते हुए छत की तरफ़ टकटकी बाँधे देखते रहना याद आता है। सलीके और तरीके से बात कहना, लफ़्ज़ों को बर्बाद न करना, फ़िक्र को गिरहों में बांधने का उनका हुनर लाजवाब था।

दबिस्तान ए लखनऊ की फेहरिस्त में अगर आज़ादी के बाद शायरों को देखें तो उनमें दिल, उमर अंसारी,फ़ज़ल नक़वी, सालिक लखनवी, वाली आसी, कृष्ण बिहारी नूर, मुनव्वर राना, शाद और पंत का नाम बड़ी संजीदगी से लिया जाता है। मज़े की बात यह है कि मुनव्वर राना,ख़ुशबीर शाद और पंत साहब इत्तेफ़ाक से तीनों ही वाली आसी साहब के शागिर्द थे। मुनव्वर साहब ख़ुद भी मानते हैं कि उनके उस्ताद भाइयों में पंत जी से बढ़िया शेर कोई नहीं कहता था।

दो दिनों की ज़िन्दगानी कुफ्र क्या इस्लाम क्या
एक दिन काबे में सजदा, बुत-परस्ती एक दिन

पंत साहब को बेचेहरगी से इस हद तक लगाव था कि उनकी मजमुआ इसी नाम से साये हुआ था । ‘तन्हाइयाँ कहती हैं’, ‘यूँ ही चुपचाप गुज़र जा (1995), और ‘कोशिश’ (1988) ज़रिए उनके कलाम से वाबस्ता हुआ जा सकता है। उनके उस्ताद भाई मुनव्वर राणा का यह बयान ज़ेरे गौर है कि ” भारत भूषण ने अपनी शायरी को हमेशा सिसकियों की छत्रछाया में रखा है, किसी भी लफ्ज़ को चीख नहीं बनने दिया। अपनी हर ग़ज़ल में वो अपने दुखों से खेलते दिखाई देते हैं ” 

दरअसल पंत जी शायरी में बहुत सी चीज़ें मिलेंगी जैसे ज़बान की मिठास, फ़िक्र का लबादा, नए मौज़ूआत, तख़लीकी अमल, नए नए इस्तिआरे, ग़ालिब ओ मीर के अलावा जिगर मुरादाबादी, शकेब जलाली, सलीम अहमद की मक़बूल ज़मीनों पर ग़ज़ल कहने का हुनर, रिश्तों की आबयारी, एक हस्सास इंसान और भी न जाने क्या क्या….। पंत साहब को एक बेहतरीन शायर के तौर पर तो याद किया ही जाएगा मगर मेरी नज़र में वे एक बेहतरीन शायर से कहीं ज़्यादा सच्चे इंसान थे। ज़िन्दगी की भट्टी में सोने की तरह तपे हुए।

आपका शेर आपको नज़्र करते हुए जन्मदिन मुबारक।

और कुछ महरूमियाँ भी ज़िन्दगी के साथ हैं 
हर कमी से है मगर तेरी कमी बिलकुल अलग