फिर भी कितना अनजान हूँ तुमसे

फिर भी कितनी अनजान हूँ तुमसे।
ख़्वाबों में ख़्यालों में
शिकवों में गिलों में
मेंहदी में फूलों में
सावन के झूलों में
झरनों के पानी में
नदियों की रवानी में
तुम ही तुम हो
फिर भी कितना अनजान हूँ तुमसे।
पतझड़ में सावन में
दिल के किसी आंगन में
झूमती इन हवाओं में
गूंजती इन सदाओं में
ख़ामोशी में बेहोशी में
और तो और सरगोशी में
तुम ही तुम हो
फिर भी कितना अनजान हूँ तुमसे।

Leave a Reply