पाक में जम्हूरियत को दबाने वाले हुक्मरानों के खिलाफ बेबाक आवाज थीं फ़हमीदा रियाज़
उर्दू अदब में नारीवाद, मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक आवाज़ को बुलंद करने वाली पाकिस्तानी शायरा और सामाजिक कार्यकर्ता फ़हमीदा रियाज़ 22 नवंबर को दुनिया को अलविदा कह गईं। वे कहने को तो पाकिस्तानी शायरा थीं मगर हिंदुस्तान की मिट्टी से भी उनका दाना पानी मुसलसल जुड़ा रहा। मेरठ में जुलाई 1945 में जन्मी फ़हमीदा बचपन में ही अपने वालिद के साथ पाकिस्तान चली गईं। सिंध में रहीं, उनकी उम्र 4 बरस की रही होगी तभी उनके वालिद का देहांत हो गया। सो पहले सिंध और बाद में हैदराबाद, कराची में रहीं। कुछ समय से बीमार चल रहीं मोहतरमा फ़हमीदा रियाज़ 73 बरस की उम्र में विगत 22 नवंबर को दुनिया छोड़ गईं।
पाकिस्तान में महिलाओं के अधिकारों के सरंक्षण को लेकर उनकी आवाज़ और लहजा हमेशा बेबाक रखा। ये अलग बात कि उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ी। पाकिस्तान में 80 का दशक लोकतंत्र और मानवाधिकारों के लिए कड़ा वक्त था। जनरल ज़िया उल हक़ के शासनकाल में इस तरह की आवाज़ें जबरदस्त तरीके से दबाई जा रही थीं ऐसे में फहमीदा कैसे बची रह सकती थीं।
बेल पर रिहा होने के बाद फहमीदा हुई अपने दोनों बच्चों को लेकर भारत आ गईं। मुशायरे के बहाने वे भारत आईं और अगले सात सालों तक यहीं निर्वासित ज़िन्दगी व्यतीत की। महान लेखिका अमृता प्रीतम ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से कहकर फहमीदा को भारत में रुकने के लिए सिफारिश की। फ़हमीदा भारत प्रवास के दौरान जामिया मिलिया विश्वविद्यालय दिल्ली में रहीं और लगातार लेखन करती रहीं।
फ़हमीदा पर आरोप लगा कि उन्होंने इस नॉवेल को लिखने में वर्जनाओं को तोड़ा है, कामुकता का सहारा लिया। हालांकि वे इससे विचलित नहीं हुई और बगैर कोई दबाव महसूस किए अपना लेखन जारी रखा। इसके बाद उनके ग़ज़ल और नसरी संग्रह धूप, ख़त ए मरमूज़,पूरा चांद, क्या तुम पूरा चाँद न देखोगे, गुलाबी कबूतर, खुले दरीचे से, हल्का मेरी ज़ंजीर का, अधूरा आदमी, क़ाफ़िले परिन्दों के, ये ख़ाना ए आब ओ गिल और आदमी की ज़िंदगी प्रकाशित हुए।
वे एक ऐसी शायरा रहीं जिनकी मक़बूलियत दोनों देशों में समान रूप से रही तभी तो जब वह सात साल की निर्वासित ज़िन्दगी बिताने के बाद 1988 में अपने वतन पाकिस्तान लौटीं तो उनका इस्तकबाल पूरे जोर-शोर से किया गया। उन्होंने “तुम बिल्कुल हम जैसे निकले …” जैसी नज़्म लिखकर भारत के हालात को बयां किया।
भारत और पाकिस्तान की सरकारों में कटु संबंधों के बावजूद फ़हमीदा रियाज़ दोनों देशों के बीच साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में संबंध लगातार जारी रखने की हिमायती रहीं। पाकिस्तानी प्रोग्रेसिव राइटर्स की पहली जमात में उनकी गिनती होती रही। समकालीन पाकिस्तानी महिला लेखकों में उनकी पहचान इशरत आफ़रीं, किश्वर नाहिद, ज़हरा निगाह, सारा शगुफ़्ता, परवीन शाकिर के साथ होती रही।
व्यक्तिगत ज़िन्दगी में वे पहली शादी के बाद कुछ वर्ष ब्रिटेन में रहीं। तलाक के बाद पाकिस्तान लौट आईं उनकी दूसरी शादी ज़फर अली उजान से हुई। उन्हें अपने अदबी कार्यों के लिए यूँ तो ताउम्र अवार्ड मिलते रहे लेकिन प्रमुख सम्मानों में सिंध सरकार का शेख़ अयाज़ अवार्ड, मुफ़्ताह अवार्ड, सितारा ए इम्तियाज़, मानवाधिकारों के लिए प्रतिरोधात्मक साहित्य सृजन के लिए हेमेट हेल्मन अवार्ड का नाम लिया जा सकता है।
मोहतरमा फ़हमीदा रियाज़ हमारे वक़्त की एक ऐसी आवाज़ हैं जो आने वाले वक़्त में भी भरपूर शिद्दत के साथ मौजूद रहेंगीं।