धरम

धरम
कभी कभी अचानक ऐसा हो जाता है कि आप को सामान्य रैपर में भी बेहतरीन चीज मिल जाती है जिसकी आप उम्मीद भी नही करते. ऐसा ही कल मेरे साथ हुआ. मैं सार्थक हिन्दी फिल्मों को देखने का विशेष शौकीन हूँ सो फिल्मों को लेकर दांव खेलता रहता हूँ . बिना बहुत विचार किए मैंने कल “धरम” नाम की एक सीडी उठा ली और देखने बैठ गया. पूरी फ़िल्म एक सिटिंग में देख गया….अब ऐसा कम ही होता है कि मैं एक बार में बिना फॉरवर्ड किए कोई फ़िल्म देख जाऊं. कुछ समय की कमी होती है तो कुछ फिल्में भी ऐसी होती है कि दिमाग उनसे जुड़ नही पाता. “धरम” ने इन पूर्वाग्रहों को काफी दिनों बाद तोडा. मैं पूरी फ़िल्म देखने के बाद ही उठ सका हर सीन के बाद अगले सीन का इन्तिज़ार रहा. लो बजट की यह पिक्चर गत वर्ष काफी चर्चा में रही थी जब इस पिक्चर को ओस्कर के लिए नामित किया गया था मगर अन्तिम चयन एकलव्य- द रोयल गार्ड का हुआ था. खैर मैं इस विवाद से ऊपर उठकर सीधे धरम के बारे में आता हूँ.फ़िल्म बनारस के ब्राह्मण पंडित चतुर्वेदी (पंकज कपूर) की धार्मिक गतिविधिओं से शुरू होती है पंडित जी पक्के कर्मकांडी ब्राह्मण हैं पुरातन ग्रन्थ उनके आचार व्यवहार की दिशा निर्धारित करते हैं. उनका हर व्यवहार कट्टर तरीके से हिंदू परम्परा की तरह होता है. गैर धार्मिक काम के बारे में वे सोच भी नही सकते. उनकी पत्नी (सुप्रिया पाठक) उनके लिए एक सहायक की तरह हैं जो पंडित जी हर काम को पूरी श्रद्धा से करती हैं.पंडित जी बनारस के ही ठाकुर विष्णु सिंह (केके रैना) के मन्दिर के खानदानी पुजारी भी हैं. घटनाएं कुछ इस तरह चलती हैं कि विष्णु सिंह का पुत्र पंडित चतुर्वेदी को नापसंद करने लगता है. इसी बीच पंडित जी कि बेटी देविका जिसकी उम्र लगभग १० वर्ष है, उसे गंगा के घाट पर कोई अनजान औरत अपना दुधमुहा बच्चा पकड़ा कर गायब हो जाती है.देविका उस बच्चे को घर ले आती है जहाँ पंडित जी की पत्नी उस छोटे से बच्चे को पालती हैं .पंडित जी को यह ठीक नही लगता कि किसी अनजान बच्चे को उनके घर में इस तरह पनाह मिले. वे अपनी पत्नी से उस बच्चे को विधर्मी कहकर पीछा छुड़ाने कि बात करते हैं. पुलिस से कहकर उसकी माँ को भी खोजने का प्रयास करते हैं मगर सब कुछ बेमतलब साबित होता है. अंतत: पंडित जी की पत्नी उस बच्चे को अपनी संतान की तरह पालती हैं. बच्चा बड़ा होने लगता है पंडित जी को भी उससे प्यार होने लगता है. बच्चे का नाम कार्तिकेय रखा जाता है. जब वह ४ साल का होता है तो अचानक एक दिन उस बच्चे की माँ अपने बच्चे को ले जाने ले लिए पंडित जी के घर प्रकट हो जाती है…..माँ मुसलमान होती है…… विचित्र स्थिति सामने आ जाती बहरहाल बच्चा चला जाता है….पंडित जी अपने किए का पश्चाताप करते हैं कि उन्होंने एक विधर्मी बच्चे को घर में पनाह क्यूँ दी वे इसलिए चंद्रयान व्रत का अनुष्ठान करते हैं. एक विधर्मी बच्चे को पालने के विरोध में कुछ लोग पंडित जी को नीचा भी दिखाते हैं. कहानी यूँ ही चलती जाती है. फ़िल्म का अंत बहुत मर्मस्पर्शी है जब साम्प्रदायिक दंगो में कुछ लोग कार्तिकेय की जान लेने का प्रयास करते हैं.और पंडित जी स्वयं उसकी जान बचाते हैं.साधारण सी लगने वाली इस कहानी को विभा सिंह ने क्या गज़ब का ट्रीटमेंट दिया है. सबसे बड़ा सरप्राइजिंग पैकेज तो स्वयं निर्देशक भावना तलवार हैं जिन्होंने अपनी पहली ही फ़िल्म में अपने शानदार काम को अंजाम दिया. बोल्ड विषय पर फ़िल्म बनाना इतना आसान नही होता मगर भावना तलवार ने हद से आगे जाकर काम किया है…… अभिनय में पंकज कपूर, सुप्रिया पाठक, ऋषिता भट्टऔर केके रैना का काम ज़बरदस्त है. सोनू निगम के आलाप से गूंजती यह पिक्चर किसी के भी दिमाग को हिला देने में सक्षम है ….मैं बस यही कह सकता हूँ कि काश यह पिक्चर ऑस्कर जाने पाती……

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