दुनिया सचमुच गोल है……….!

गोरखपुर में आने के बाद कई नए लोगों से मुलाकातें हुईं……..शायद नयी जगहें और नए लोग ही हमारे प्रोफेसन की सबसे बड़ी पहचान हैं………लगातार तबादले और इन्ही तबादलों के बीच अपनी जिंदगी को सेटल कर लेने की अदम्य चाहत ही हमारी सबसे बड़ी जिजीविषा है…….बहरहाल गोरखपुर में जब आया तो यह शहर मेरे लिए बिलकुल अनजान शहर था…….कोई पुराना दोस्त यहाँ नहीं था……..! मगर कहते हैं न कि दुनिया गोल है………यहां बहुत से अपरिचितों के बीच भी कुछ लोग थे जो पुराने निकल आये और नए शहर में इन पुराने लोगों की सोहबत में नए लोग मिलते गए………जिन पुराने लोगों से यहाँ मुलाकात हुयी इत्तेफाक देखिये कि दोनों ही रेलवे में अफसर हैं…….एक हैं विप्लवी साहब……जिनके बारे में मैंने तफसील से अपनी पुरानी पोस्ट में लिखा ही था……..दूसरे रहे अनुराग यादव…..! अनुराग पेशे से इंजीनीयर हैं सिविल के वे इंजीनीयर हैं……फ़िलहाल डेपुटी चीफ इंजीनीयर हैं………वे भी मेरे पैतृक शहर मैनपुरी के रहने वाले हैं……….हम दोनों हम उम्र हैं……..दस बरस पहले मैनपुरी के पुस्तकालय से हम दोनों की मुलाकातें हैं दरअसल अनुराग को भी पढ़ने का बहुत शौक था और मुझे भी ! शुरुआत में हम दोनों रोज उस पुस्तकालय में मिलते थे……..कुछ दिनों दोनों एक दूसरे को इग्नोर करते रहे………..बाद में आँखों ही आँखों में हाई-हेल्लो होने लगी फिर बात चीत शुरू हुयी………दोस्त बढ़ी …………किताबों पर चर्चाएँ भी हुईं……..चूँकि मेरा सिविल सेवा का टार्गेट फिक्स हुआ…….दिल्ली चला आया…….. अनुराग का भी शायद इंजिनीयरिंग की तरफ रुझान हुआ और वे भी इस दिशा में आगे बढ़ गए, भारतीय इंजिनीयरिंग परीक्षा पास की और रेलवे में इंजिनीयर बन गए …………..सालों एक दूसरे से मुलाकातें नहीं हुईं………….लगभग एक दूसरे को भूल से गए………..एक दिन अचानक अपने ऑरकुट पर अनुराग नाम की फ्रेंड रेकुएस्ट देखी…………मैं तब भी नहीं अनुराग को ट्रेस कर पाया…….बस मैनपुरी का कोई बन्दा समझ कर “हाँ” कर दी……….बाद में बातें आगे बढ़ी तो पता चला की यह तो वही अनुराग हैं……..संयोग शायद इसे ही कहते हैं………………….मेरा ट्रांसफर गोरखपुर हो गया……….आने के बाद अनुराग से मुलाकात हुयी……..कुछ शारीरिक परिवर्तनों के बावजूद मैं अनुराग को तुरंत पहचान गया………..यादों के पुराने पन्ने फिर खोले गए…………..इसके बाद औपचारिकताओं की गुंजाइश ख़त्म हो गयी…………….. फिलहाल अपने रिश्ते को हमने और भी विस्तार दिया है पत्नी और बच्चों तक इस दोस्ती की बेलें फ़ैल गयींहैं बरसों बाद अनुराग से गोरखपुर में मिलने के बाद लगता है कि सचमुच दुनिया गोल है……..!
अहमद फ़राज़ का यह शेर शायद इसी की बानगी है
फिर इसी राह गुज़र पर शायद,
हम कभी मिल सकें मगर शायद !
जान पहचान से भी क्या होगा,
फिर भी ऐ दोस्त गौर कर शायद !
जो भी बिछड़े हैं कब मिले हैं फ़राज़,
फिर भी तू इन्तिज़ार कर शायद !

Leave a Reply