….दिल में कोई खलिश छुपाये हैं !

अपनी प्रशासकीय व्यस्तता के चलते इधर बहुत दिनों से न अपने प्रिय ब्लोगर्स को पढ़ पा रहा था और न ही उन्हें अपनी प्रतिक्रियाएं भेज पा रहा था……..मगर ब्लॉग जगत पर आज विचरण किया तो पता चला कि मैं ही नहीं बहुत से ब्लोगर मित्रों ने इधर चुप्पी सी लगा रक्खी है……उनके ब्लॉग पर भी नया ताज़ा कुछ नहीं मिला…….अपने मित्र गौतम राजरिशी के ब्लॉग पर भी देखा मगर हताशा हाथ लगी…….सुबीर साहब तो मशरूफ रहते ही हैं……इस्मत जी ने जरूर इस गतिरोध को तोड़ा है, उन्होंने बहुत सुन्दर ग़ज़लें लिखी है…….पाखी,अभिषेक ओझा,वंदना जी, रंजना,कुश, अमरेन्द्र, महफूज़ भी खामोश हैं………उड़न तश्तरी समीर जी ने ४०० पोस्ट लिख कर इस ख़ामोशी के दौर में अपनी सक्रियता बनाये रखते हुए वाकई उपलब्धि हासिल की है……..! अपनी निष्क्रियता का अंदाजा तब हुआ जब क्षमा जी ने लिख कर और शिवम् मिश्र ने आज फोन कर मुझसे न लिखने का उलाहना दिया तो लगा कि वाकई लिखना जरूरी है…..सो आज सोच लिया कि आज एक पुरानी ग़ज़ल पोस्ट कर दूं, ताकि जमी हुयी बर्फ पिघले ……..उसी क्रम में यह ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ……

दिल में कोई खलिश छुपाये हैं,
यार आईना ले के आये हैं !!

अब तो पत्थर ही उनकी किस्मत हैं,
जिन दरख्तों ने फल उगाये हैं !!

दर्द रिसते थे सारे लफ़्ज़ों से,
ऐसे नग्में भी गुनगुनाये हैं !!

अम्न वालों की इस कवायद पर,
सुनते हैं ” बुद्ध मुस्कुराये हैं” !!

ये भी आवारगी का आलम है,
पाँव अपने सफ़र पराये हैं !!

जब कि आँखें ही तर्जुमाँ ठहरीं,
लफ्ज़ होठों पे क्यूँ सजाये हैं !!

कच्ची दीवार मैं तो बारिश वो,
हौसले खूब आजमाये हैं !!

देर तक इस गुमाँ में सोते रहे,
दूर तक खुशगवार साये हैं !!

जिस्म के ज़ख्म हों तो दिख जाएँ,
रूह पर हमने ज़ख्म खाये हैं !!

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