डोर से बंधी पतंग का दर्द कौन समझेगा……..’महिला दिवस’ !

आज आठ मार्च है……………..अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस…….! कायनात की अगर सबसे हसीं कोई चीज है तो वो निश्चित रूप से ‘स्त्री’ है…….! कभी माँ के रूप में तो कभी बहन के रूप में……….कभी पत्नी के रूप में तो कभी बेटी के रूप में स्त्री अपने रंग रूप में तब्दील होती रही है…….. यह अलग बात है कि पूरी दुनिया में चाहे वो विकसित देश हों या विकास शील देश ……..महिलाओं को हमेशा हर जगह दोयम दर्जे का ही समझा गया है……..दकियानूसी समाज ने तो महिलाओं की स्थिति और भी कमजोर की है…. ,मगर यह “स्त्री शक्ति” ही है जो इन तमाम विरोधाभाषों से लड़कर तप कर निखरती रही है……..वैदिक कालीन सभ्यता हो या कि महाकाव्य कालीन समाज ……….हमेशा सीता-अहिल्या के रूप में स्त्री को पुरुषवादी मानसिकता का शिकार होना पड़ा है…………तथाकथित विकसित सोच रखने वाले देशों में भी महिलाओं की स्थिति कमोबेश ऎसी ही रही है…..वर्ना कोई तो कारण नहीं क़ि अमेरिका जैसे देश में अब तक कोई महिला प्रेसीडेन्ट नहीं हुयी…….! सामाजिक- आर्थिक- साहित्यिक- राजनीतिक-खेल-प्राशासन…….सभी मंचों पर आज स्त्री निर्णायक भूमिका में है………..हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि यदि समाज में “इन्क्लूसिव सोशल ग्रोथ” का सपना साकार करना है तो हमें स्त्री-पुरुष जैसी लिंगभेदी मानसिकता से ऊपर उठकर महिलाओं को बराबरी का अधिकार देना ही होगा….! यह महिला दिवस मानाने वाली रीति मुझे कम समझ में आती है की हम किसी एक दिवस को ही महिला दिवस मनाएं……बहरहाल इसे ‘प्रतीक दिवस’ के रूप में मनाने का प्रचलन आ ही चूका है तो ऐसे में यह दिवस मना कर खुद को अपनी जिम्मेदारियों का एहसास तो दिला ही सकते हैं………..! ऐसे अवसर पर, कैफ़ी आज़मी साहब जैसे प्रगतिशील शायर ने एक अरसा पहले “स्त्री शक्ति” से जो कहा था उसे दोहराने का मन कर रहा है……

उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िन्दगी जहद में है सब्र के काबू में नहीं
नब्ज़ -ए-हस्ती का लहू कांपते आँसू में नही
उड़ने खुलने में है नक़्हत ख़म-ए-गेसू में नहीं
ज़न्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
क़द्र अब तक तिरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझमे में शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
तोड़ ये अज़्म शिकन दग़दग़ा-ए-पन्द भी तोड़
तेरी ख़ातिर है जो ज़ंजीर वह सौगंध भी तोड़
टुक यह भी है ज़मर्रूद का गुल बन्द भी तोड़
तोड़ पैमाना-ए-मरदान-ए-ख़िरदमन्द भी तोड़
बन के तूफ़ान छलकना है उबलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
तू फ़लातून व अरस्तू है तू ज़ोहरा परवीन
तेरे क़ब्ज़े में ग़रदूँ तेरी ठोकर में जमीन
हाँ उठा जल्द उठा पा-ए-मुक़द्दर से ज़बीं
मैं भी रुकने का नहीं वक़्त भी रुकने का नहीं
लड्खादायेगी कहाँ तक कि संभलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे !
निदा साहब ने माँ के रूप में स्त्री का जो सुन्दर रूप देखा है उसके तो क्या कहने……..
बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ ,
याद आता है चौका-बासन, चिमटा फुँकनी जैसी माँ ।
बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन थोड़ी-थोड़ी सी सब में ,
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी मां ।
जी चाहता है कि अपनी एक नज़्म इस मौके पर आपको पेश करूँ, जो मैंने खास महिलाओं को ही ध्यान में रख कर लिखी थी ……….
तूने
बख्शा तो है
मुझे खुला आसमान
साथ ही दी हैं
तेज़ हवाएं भी
हाथों की
हल्की ज़ुम्बिस देकर
ज़मीं से ऊपर उठा भी दिया है
…….मगर
ये सब कुछ
बेमतलब सा लगता है
ये आसमान,
ये हवाएं,
ये हलकी सी जुम्बिश…………….
काश
तूने ये कुछ न दिया होता
बस मेरी कमान खोल दी होती…….
एक धागा है ,
जिसने बदल दिए हैं
मायने
मेरी आज़ादी के,
…………….डोर से बंधी पतंग का दर्द कौन समझेगा।

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