क्या यही वक्त है घर आने का

…और कभी मैं घर को लौटूँ,
तुम दालान के बाहर।
उस छोटी सी मुंडेर पे, जिसपे
हर शाम परिंदे आ-आकार।
कुछ दाने से चुन आते हैं,
वक्ते अस्र की आवाज़े।
और तुम गोया खुदनगर
उस दालान की ईंटों पर
गालों को कुहनी पे टिकाकर
मेरा रास्ता तकती हो,
मैं धीरे से पीछे आकर
अपनी सख़्त हथेलियों से
चुपचाप तुम्हारी आँखों को सहलाऊँगा।
तुम्हारे बुझे-बुझे से चेहरे पर
एक रौनक’ खेल सी जायेगी
यक व यक तुम्हारी नर्म हथेलियाँ
अपनी सहेली हथेलियों से
कुछ गुफ़्तार करेंगी, पर
अचानक
जैसे कुछ याद तुम्हें आ जायेगा,
मेरी हथेलियाँ छिटक कर
अपनी शादाबी साड़ी का
पल्लू कमर में खोंसोगी,
वो होंठ जो कुछ लम्हे पहले तक
एक-दूसरे से भिंचे-भिंचे थे,
कुछ उदास उदास
कुछ सटे-सटे थे,
एक बातिल शिकायती लहजा
उन सुर्ख़ लबों पे आयेगा
होंठों को तिरछा सा बनाकर
जुल्फ़ों को शानों पे गिराकर
लरज़ती हुई सी पूछोगी
‘‘क्या यही वक्त है घर आने का’’।
वक्ते अस्र = दिन का चौथा पहर, खुदनगर = खुद में खोया हुआ, शादाब = हरा रंग, बातिल = झूठा, शान = कंधा

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