किसकी कहें, हालात से अपने कौन यहाँ बेज़ार नहीं

किसकी कहें, हालात से अपने कौन यहाँ बेज़ार नहीं
ग़म से परेशाँ सब मिलते हैं, पर कोई ग“मख़्वार नहीं

या तो मंजि’ल दूर हो गयी, या फिर रस्ते मुश्किल हैं
क्यूं मेरे क’दमों में अब वो पहली सी रफ़्तार नहीं

मह्ज’ हाकिमों की दुनिया ही उनकी ख़ातिर ख़बरें हैं
मज़लूमों के हक’ में लिखने वाले अब अख़बार नहीं

शह्रों की तहज़ीब पे जब भी तंज’ करूँ तो लगता है
गाँवों में भी अब पहले सा अपनापन और प्यार नहीं

बेच चुका हूँ, नज़्में ग“ज“लें महफि’ल महफि’ल गा गाकर
खुद मेरे हिस्से में अब तो मेरे ही अशआर नहीं

कहने को मैं रंग रूप में उसके जैसा लगता हूँ
पर मेरे लहजे में उस जैसा तर्ज़े -इज्“हार नहीं

मेरे मुँह पर मेरे जैसी उसके मुँह पर उस जैसी
रंग बदलती इस दुनियां में सब कुछ है किरदार नहीं

बेज़ार = अप्रसन्न, ग“मख़्वार = ग“म खाने वाला, तर्जे-इज’हार = व्यक्त करने का ढंग

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