कविता, ग“ज“ल और नज़्म

तुम्हारी मासूम धुली-धुली सी
आँखों के एक कोने में
इक ख़याल छुपा सा बैठा है,
लफ़्जों के जाल उसे फाँस न लें,
शायद इसलिए
दुबक के बैठा है।
खारे पानी की चादर ओढ़े
ख़याल की पेशानी पर कुछ बल
लहरों की तरह उठते हैं, गिरते हैं
और उधर लफ़्ज…
…ख़याल को दबोचने की फि’राक’ में
होठों पर जाल लिए फिरते हैं
ये छुपने और दबोचने का सिलसिला
यूँ ही चलता रहा है,
चलता रहेगा,
हर इक चेहरा इस मुक’ाबले को
यूँ ही सहता रहा है,
सहता रहेगा…
…ख़ैर
कब तक छुपा रहेगा
ख़याल इन आँखों के झुरमुट से
निकल ही आएगा बाहर
पलकों के दरीचे को हटाकर कुछ गर्मµखारी
बूँदों में सिमटकर
…तभी
लफ़्त हो जायेंगे होशियार, बाख़बर
तेज़ी से आगे आकर ख़यालात की उंगली में
पहना देंगे एक अंगूठी
लफ़्ज में ख़याल
ख़याल में लफ़्ज
दीवारें ख़त्म
जुबां बढ़ आयेगी आगे
बुजुर्ग दरख़्त की मानिंद ख़याल को लफ़्जों के सतरंगी दुपट्टे का
नज’राना देकर कर देगी उन पर साया।
कुछ देर पहले जो थी एक ख़ामोशी
बन जायेगी एक खूबसूरत बयान
लफ़्ज और ख़याल के आपस में गुथने
की एक प्रेम कहानी
शायद इसी का नाम है
ग“ज“ल, कविता और नज़्म।

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