ओरछा के किले से………….

हुज़ूर फिर हाज़िर हूँ……पिछले दिनों मैं यू पी दर्शन पर था….अकेलापन नए एहसास को जगाने में हमेशा मोडरेटर की भूमिका निभाताहै……ऐसा ही कुछ मेरे साथ ओरछा में हुआ . ओरछा के किले में अकेलेपन के माहौल में और बेतवा के किनारे बैठकर ओरछा रिसॉर्ट में एकग़ज़ल लिख डाली….बगैर किसी इस्लाह और तरमीम के यह ग़ज़ल आप सब के हवाले कर रहा हूँ….अच्छी लगे या बुरी निष्पक्ष प्रतिक्रिया काबेसब्री से इन्तिज़ार रहेगा……ग़ज़ल हाज़िर है.

मेरी तन्हाई क्यों अपनी नहीं है !
ये गुत्थी अब तलक सुलझी नहीं है !!

बहुत हल्के से तुम दीवार छूना,
नमी इसकी अभी उतरी नहीं है !!

मुआफी बख्श दी एक तंज़ देकर,
“तुम्हारी भूल ये पहली नहीं है” !!

समझना है तो बस आँखों से समझो,
कोई तहरीर या अर्जी नहीं है !!

बुलंदी, शोहरतें, इज्ज़त, नजाकत,
मुझे पाना है, पर जल्दी नहीं है !!

बहुत चाहा तेरे लहजे में बोलूं,
मेरे लहजे में वो नरमी नहीं है !!

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