एक ग़ज़ल मेरी भी

लफ्ज़ पत्रिका ग़ज़लों को प्रकाशित करने वाली त्रैमासिक पत्रिका है। ये पत्रिका दिल्ली से प्रकशित होती है । इसके सम्पादक तुफैल चतुर्वेदी हैं जो मेरे मित्र भी हैं। आज जितनी भी पत्रिकाएं ग़ज़लों को प्रकाशित करने की दिशा में काम कर रही हैं उनमे इस पत्रिका का नाम काफी वज़नदार है। बहरहाल इस पत्रिका में दो gazal मेरी भी प्रकाशित हुई हैं उसमे से एक ग़ज़ल को मैं आपको post कर रहा हूँ padhiye शायद acchi लगे

दिल में कोई खलिश छुपाये हैं , यार आइना ले के आयें हैं।

उनकी किस्मत हैं क्या ये पत्थर ही, जिन दरख्तों ने फल उगाये हैं।

दर्द रिश्ते थे सारे ज़ख्मों से,ऐसे नगमे भी गुनगुनाये हैं।

जंग वालों की इस कवायद पर, सुनते हैं ” बुद्ध मुस्कुराये हैं”।

ये भी आवारगी का आलम है, पाओं अपने सफर पराये हैं।

जब की आँखे ही तर्जुमा ठहरी, लफ्ज़ होठों पे क्यों सजाये हैं।

कच्ची दीवार मैं तो बारिश वो, हौसले खूब आजमाए हैं।

देर तक इस गुमा में सोते रहे, दूर तक खुशगवार साए हैं।

जिस्म के ज़ख्म हो तो दिख जाए, रूह पर हमने ज़ख्म खाए हैं।

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