एक नयी ग़ज़ल…….!

nnnnnइधर काफी दिन से कोई ग़ज़ल ब्लॉग पर पोस्ट नहीं की थी…….दोस्तों की तरफ से उलाहने आ रहे थे कि ग़ज़ल पोस्ट करो………………… पीसिंह, शिवम् मिश्र, सुमति, सत्यम, अमरेन्द्र, मनीष ,पंकज, विप्लवी साहब जैसे दोस्तों की बात का आदर करते हुए एक नयी ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ………..इस उम्मीद में कि आपको ये पेशकस शायद पसंद आये……….! हाज़िर है ग़ज़ल…………!

वो कभी गुल कभी खार होते रहे,
फिर भी हम उनको दिल में संजोते रहे !!

इश्क का पैरहन यूँ तो बेदाग़ था,
हम मगर उसको आँखों से धोते रहे !!

वादियों में धमाकों की आवाज़ से,
सुर्ख गुंचे जो थे ज़र्द होते रहे !!

काट डाला उसी पेड़ को एक दिन,
मुद्दतों जिसके साए में सोते रहे !!

मोहतरम हो गए वो जो बदनाम थे,
हम शराफत को काँधे पे ढोते रहे !!

मंजिलें उनको मिलतीं भी कैसे भला,
हौसले हादसों में जो खोते रहे !!

आर्ज़ू थी उगें सारे मंज़र हसीं,
इसलिए फसल ख्वाबों की बोते रहे !!

जिन्दगी भी उन्हें बख्शती क्या भला,
बोझ की तरह जो इसको ढोते रहे !!

ये न देखा कि छत मेरी कमजोर थी,
देर तक घर को बादल भिगोते रहे !!

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