“एक ठो चांस लीजिये न सईद साहब” …………!

कल जन संस्कृति मंच गोरखपुर द्वारा आयोजित गोरखपुर फिल्म उत्सव में जाने का अवसर मिला…….मंच इस कार्यक्रम को विगत पाँच वर्षों से आयोजित कर रहा है……इस बार इस आयोजन का थीम था ” प्रतिरोध का सिनेमा” और इस बार इसमें जिस निर्देशक को फोकस किया गया था वे थे …..सईद मिर्ज़ा…..! सईद मिर्ज़ा नाम उन लोगों के लिए बिलकुल भी नया या अपरिचित नहीं है जो सामानांतर सिनेमा (इस शब्दावली को लेकर फिलहाल बहुत से कला मर्मज्ञ भिन्न-भिन्न विचार रखते हैं ) में रूचि रखते हों……. ! सईद मिर्ज़ा साहब ने अपना कैरियर शुरू किया था “अरविन्द देसाई की अजीब दास्ताँ ” (1978) से ………उन्हें पहचान मिली 1980 में जब उन्होंने सामाजिक व्यवस्था से लड़ रहे एक युवक को केंद्र में रख कर फिल्म बनाई…”अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है…?” उनकी तीसरी फिल्म आयी “मोहन जोशी हाज़िर हों”……यह फिल्म न्याय व्यवस्था को लेकर एक वृद्ध दंपत्ति की लड़ाई को ध्यान में रखकर बनाई गयी थी…..1989 में उनकी फिल्म आयी…..”सलीम लंगड़े पे मत रो…..” यह कहानी थी एक ऐसे मुस्लिम युवक की जो बहुत ही बेबाकी से साम्प्रदायिकता के माहौल को एक्सपोज करती थी, नए आयाम को दिखाती थी……सईद मिर्ज़ा साहब की अंतिम फिल्म थी……”नसीम” जो तात्कालिक हालातों में उपजे दादा-पोती संवाद के सहारे चलती है. उन्हें इस फिल्म के लिए निर्देशन का राष्ट्रीय पुरुस्कार भी मिला था…….!
कुल मिलकर एक बहुत बड़ा रचना संसार है सईद मिर्ज़ा साहब का……वे एक जागरूक इंटेलेक्चुअल टाइप के डायरेक्टर तो हैं ही, समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी बखूबी महसूस करते हैं……! अपनी जेहनियत को उन्होंने किसी दायरे में नहीं समेटा है……. डायरेक्टर के साथ साथ वे रायटर भी हैं पिछले साल उनकी लिखी किताब “अम्मी : लेटर टू ए डेमोक्रटिक मदर” भी आयी थी……इसके अलावा टी.वी. धारावाहिक ‘नुक्कड़’…..और ‘इन्तिज़ार’ के पात्र तो अभी तक जेहन में वैसे के वैसे ही बने हुए हैं….! बीच में पता चला कि उनका रुझान पत्रकारिता की तरफ हुआ….फिलिस्तीन- रामल्ला जाकर कुछ रिपोर्टिंग वगैरह करते रहे….! फिलहाल वे ‘स्व’ की खोज में लगे हैं……गोवा में समंदर के किनारे घंटो बैठकर जीवन के असली मर्म को पहचानने की कोशिश में मशरूफ हैं…….प्रबंधन वाले लोग समझ गए होंगे कि अब्राहम मस्लो के ‘सेल्फ अक्चुलाईजेसन’ की यात्रा की तरफ वे निकल चुके हैं……!
इस फिल्म उत्सव में उनसे मिलने का अवसर प्राप्त हुआ तो दुनिया-जहाँ के विषयों पर चर्चा हुयी……राजनीति- अर्थ- साहित्य…इत्यादि इत्यादि……! फिल्मों के बारे में बात न हो यह मुमकिन न था……! मैंने जब यह पूछ डाला कि “नसीम” के बाद से आपका रचना संसार सृजन विशेषतया फिल्म क्राफ्टिंग अचानक थम सी गयी है………इसके पीछे कोई खास वज़ह…….? खूबसूरत चेहरे पर ढाढ़ी ……….. सिगरेट का कश लेते हुए लम्बे कद के सईद साहब मुस्कुराते हुए बोले….रचना संसार खैर थमा तो नहीं है……..मगर मोड ऑफ़ प्रेजेंटेसन जरूर बदला है………..पहले फिल्म बनाता था, अब उसके अलावा भी बहुत से माध्यम हैं जिनके सहारे खुद को व्यक्त कर रहा हूँ ……अखवार , मंच, किताबें, चिंतन वगैरह -वगैरह !
सच मानिये सईद मिर्ज़ा साहब ऐसे फ़िल्मकार हैं जिन्होंने हमारे बीच घटने वाले समाज के द्वंदों- स्थितियों -हालातों की गहरी पड़ताल की है और आम आदमी की घुटन- एहसास को अपने शिल्प के माध्यम से उकेरा है………मध्य वर्ग की परेशानियों और ज़मीनी हकीकत के बीच उनका बुना हुआ ताना बाना हमें गहरे से सोचने पर विवश करता है……….! लेकिन नसीम (1996) के बाद से वे फिल्म निर्देशन कि कैप क्यों नहीं पहन रहे हैं…….. आखिर उनकी ख़ामोशी कब टूटेगी…….? पूछने पर लम्बी गहरी सांस भरते हुए कहते हैं……”कुछ पता नहीं…….फ़िल्में उनके लिए व्यवसाय कम, सन्देश देने का माध्यम कहीं ज्यादा है……सोचा था कश्मीर पर एक फिल्म बनाऊंगा मगर बात अब तक अधूरी है…….एक नयी फिल्म बनाई तो है “एक ठो चांस” के नाम से, शायद मार्च में देखने को मिले…….कहते हैं कि अब रूह थक सी गयी है…….!” बहरहाल नसीम के बाद उनकी ख़ामोशी टूटे हम तो यही दुआ करते हैं…. भूमंडलीकरण के दौर में जब आम आदमी की पहचान सिनेमा से विलुप्त होती जा रही है तो ऐसे में सईद साहब की हिंदी सिनेमा जगत में उपस्थिति बेहद जरूरी है………सईद साहब के लिए हम यही कहेंगे कि रूह को थकाइये मत……..समाज को आप जैसे फिल्मकारों की फिल्मों की शिद्दत से जरूरत है…….. !
प्लीज “एक ठो चांस लीजिये न सईद साहब” …………!

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