उतरा है ख़ुदसरी पे वो कच्चा मकान अब

उतरा है ख़ुदसरी पे वो कच्चा मकान अब
लाजिम़ है बारिशों का मियां इम्तिहान अब

मुश्किल सफ’र है कोई नहीं सायबान अब
है धूप रास्तों पे बहुत मेहरबान अब

कुर्बत के इन पलों में यही सोचता हूँ मैं
कुछ अनकहा है उसके मिरे दर्मियान अब

याद आ गयी किसी के तबस्सुम की इक झलक
है दिल मेरा महकता हुआ ज़ाफ’रान अब

यादों कोकैद करने की ऐसी सजा मिली
वो एक पल संभाले है दिल की कमान अब

खुदसरी = मनमानी, सायबान = छाया, कुर्बत = सामीप्य, ज़ाफरान = केसर

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