सिर्फ ज़रा सी जिद की ख़ातिर अपनी जाँ से गुजर गए
सिर्फ ज़रा सी जिद की ख़ातिर अपनी जाँ से गुजर गए
एक शिकस्ता कश्ती लेकर हम दरिया में उतर गए
तन्हाई में बैठे बैठे यूँ ही तुमको सोचा तो
भूले बिसरे कितने मंजर इन आँखों से गुज़र गए
जब तक तुम थे पास हमारे नग्मा रेज़ फज़ाएँ थीं
और तुम्हारे जाते ही फिर सन्नाटे से पसर गए
उसकी भोली सूरत ने ये कैसा जादू कर डाला
उससे मुख़ातिब होते ही सब मेरे इल्मो-हुनर गए
मज़हब, दौलत,जात घराना, सरहद, गैरत, ख़ुद्दारी
एक मुहब्बत की चादर को कितने चूहे कुतर गए
हर पल अब भी इन आँखों में उसका चेहरा रहता है
कहने को मुद्दत गुज़री है उसकी जानिब नज़र गए
हीरें भी क्यूँ शर्मिंदा हों नयी कहानी लिखने में
जब इस दौर के सब राँझे ही अहदे-वफा से मुकर गए