तुम्हें पाने की धुन इस दिल को यूँ अक्सर सताती है

तुम्हें पाने की धुन इस दिल को यूँ अक्सर सताती है
बंधी मुट्ठी में जैसे कोई तितली फड़फड़ाती है

चहक उठता है दिन और शाम नग्में गुनगुनाती है
तुम्हारे पास आता हूँ तो हर शय मुस्कुराती है

मुझे ये ज़िंदगी अपनी तरफ’ कुछ यूँ बुलाती है
किसी मेले में कुलफी जैसे बच्चों को लुभाती है

वही बेरंग सी सुब्हें वही बेकैफ सी शामें
मुझे तू मुस्तकि’ल ऐ जि’न्दगी क्यूँ आज’माती है

क’बीलों की रिवायत, बंदिशें, तफ’रीक’ नस्लों की
मुहब्बत इन झमेलों में पड़े तो हार जाती है

किसी मुश्किल में वो ताक’त कहाँ जो रास्ता रोके
मैं जब घर से निकलता हूँ तो माँ टीका लगाती है

न जाने किस तरह का क’जर्’ वाजिब था बुजुर्गों पर
हमारी नस्ल जिसकी आज तक कि’स्तें चुकाती है

हवाला दे के त्योहारों का रस्मों का रिवाजों का
अभी तक गांव की मिट्टी इशारों से बुलाती है

बेकैफ = आनन्द रहित, मुस्तकि’ल = दृढ़ता, तफ’रीक’ = भेदभाव

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