उस्तादों के उस्ताद थे ग़ुलाम मुस्तफ़ा खान
रामपुर सहसवान संगीत घराने से ताल्लुक रखने वाले ग़ुलाम मुस्तफ़ा खान बीती 17 जनवरी को दुनिया से अलविदा कह गये. उनका इस दुनिया से अलविदा हो जाना किसी एक व्यक्ति अथवा किसी एक कलाकार मात्र का विदा हो जाना नहीं कहा जा सकता, बल्कि उनके इंतकाल से संगीत के एक ऐसे संस्थान का इस दुनिया से अलविदा हो जाना कहा जाएगा, जिसने संगीत को अपनी सांसों के साथ ताउम्र जिया. उनके जाने की भरपाई होना नामुमकिन है.
ग़ुलाम मुस्तफ़ा खान एक ऐसे महान कलाकार के रूप में याद किए जाएंगे कि जिसने संगीत की पुरातन परम्परा को अपनी रूह से लगाए रखा. उन्होंने गुरु-शिष्य परम्परा को पूरी शिद्दत के साथ जिया, स्थापित किया और उसका पोषण भी किया.
यह अनायास ही नहीं है कि आज उनके शागिर्दों में बहुत से कलाकार अपने फ़न का लोहा मनवा रहे हैं. उनके शागिर्दों में आशा भोंसले, गीता दत्त, मन्ना डे, कमल बारोट, वहीदा रहमान, रानू मुखर्जी जैसे पुराने दिग्गज कलाकार तो शामिल हैं ही, आज के समय के ए.आर. रहमान, हरिहरन, शान, सोनू निगम, अलीशा चिनाॅय, सना, कल्पना पटोवरी, शिल्पा राव और सागरिका जैसे गायक भी शामिल हैं. उस्ताद राशिद खान उनके भतीजे भी हैं और शागिर्द भी.
उनके इंतकाल पर स्वयं लता मंगेशकर ने विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए ट्वीट कर इस बात की जानकारी दी कि ‘‘मेरी भांजी ने भी खान साहब से संगीत सीखा है. मैंने भी उनसे थोड़ा संगीत सीखा था. उनके जाने से संगीत की दुनिया को हानि हुई है.‘‘
ग़ुलाम मुस्तफ़ा खान साहब वास्तव में उस्तादों के उस्ताद कहे जा सकते हैं.
ग़ुलाम मुस्तफ़ा खान का जन्म 3 मार्च, 1931 को उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में हुआ था. उनके परिवार में संगीत की पुरानी परम्परा चली आ रही थी. उनका परिवार रामपुर सहसवान घराने से ताल्लुक रखता था. उनके पिता उस्ताद वारिस हुसैन खान साहब थे, जो खुद भी बहुत बड़े संगीतज्ञ थे. उस्ताद वारिस हुसैन खान ने अपने बेटे ग़ुलाम मुस्तफ़ा खान को बचपन से ही संगीत की तालीम देना शुरू कर दिया. बताते हैं कि दो वर्ष की आयु से ही ग़ुलाम मुस्तफ़ा खान ने संगीत समझना शुरू कर दिया था.
ग़ुलाम मुस्तफ़ा खान को बचपन में उस्ताद फिदा हुसैन खान की सोहबतें मिलीं. जब मुस्तफा बड़े होने लगे तो उस्ताद निसार हुसैन खान ने उन्हें संगीत की बारीकियों से अवगत कराया. पांच वर्ष की उम्र में तो ग़ुलाम मुस्तफ़ा खान ने बाकायदा गाना शुरू कर दिया. आठ वर्ष की आयु में उन्होंने अपना पहला सार्वजनिक स्टेज परफारमेंस जन्माष्टमी के अवसर पर दिया. कुछ समय बाद वे कानपुर आ गये. कानपुर में कुछ बरस रहने के बाद वे मुंबई चले गए.
उन्होने अपना पहला पार्श्वगायन 1957 में एक मराठी फिल्म ‘चांद प्रतीक्षा‘ के लिए किया जिसे एक बार में ही रिकॉर्ड कर लिया गया था. संगीत निर्देशक भी हैरान थे कि पहली बार पार्श्वगायन कर रहा कोई गायक इतने अच्छे से कैसे रिकॉर्ड कर सकता है! ग़ुलाम मुस्तफ़ा खान ने बाद में कुछ हिन्दी, गुजराती भाषा की फिल्मों के लिए भी गाने गाए. उन्होंने उमराव जान, भुवनशोम, बदनाम बस्ती, आगमन, श्रीमान आशिक, नूरजहां, चांद प्रतीक्षा (मराठी), दु्रत (बंगाली), अनारकली (तेलुगू), फ़िजा, मीनाक्षी आदि फिल्मों में अपनी आवाज दी.
उस्ताद ग़ुलाम मुस्तफ़ा खान को फिल्मों में गाने के लिए लगातार प्रस्ताव आते रहते थे लेकिन वे खुद को संगीत का एक पारम्परिक कलाकार मानते थे, कहते थे कि संगीत की समृद्ध परम्परा को बनाये रखने के लिए काम करना चाहिए. उन्होंने मृणाल सेन की फिल्म ‘भुवन शोम’ से गायन की शुरूआत की. संगीत निर्देशक विजय राघव राव के नेतृत्व में ‘बदनाम बस्ती’ के लिए ‘सजना काहे नहीं आये…’ गाया.
उन्होंने एक ही फिल्म में पार्श्वगायक होने के साथ-साथ एक जर्मन डाक्यूमेंटरी ‘रेन मेकर’ में बैजू बावरा की भूमिका निभाई. ग़ुलाम मुस्तफ़ा खान ने नाट्यशास्त्र और मतंग ऋषि द्वारा लिखित ‘वृहद्देशी’ की तमाम रचनाओं को शास्त्रीय अंदाज में गाया. सारंग देव की संगीत रत्नाकर के कुछ छन्दों को भी उन्होंने आवाज दी. संगीत नाटक अकादमी ने उनकी संगीत परफॉरमेंस को रिकार्ड करके रखा है. उनके कालजयी एलबम में सुरध्वनि, रासरंग, इब्तिया, इबादत, ग़ज़ल का मौसम का नाम लिया जा सकता है.
15 साल पहले खान उस्ताद ग़ुलाम मुस्तफ़ा खान ब्रेन स्ट्रोक का शिकार हो गए थे. उन्हें लकवा भी मार गया था. तभी से वह बीमार चल रहे थे. वह चल-फिर भी नहीं पाते थे. घर में ही उनका इलाज चल रहा था.
ग़ुलाम मुस्तफ़ा खान ने हाल ही में कोक स्टूडियो के लिए परफॉरमेंस दिया था, इसकी खासियत यह थी कि इसमें उनके परिवार की तीन पीढ़ियों ने एक साथ गायन किया था जबकि एआर रहमान ने इसका संगीत दिया था.
उन्हें पद्मश्री (1991), पद्म भूषण (2006), पद्म विभूषण (2018), राष्ट्रीय तानसेन सम्मान (2008), संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड (2003), पं. दीनानाथ मंगेशकर अवॉर्ड (2011), जियालाल वसन्त अवॉर्ड (2014), उस्ताद हाफिज अली खान अवॉर्ड (2003), बासव राजगुरु अवॉर्ड (2016), महाराष्ट्र सांस्कृतिक पुरस्कार आदि से सम्मानित किया गया है.
उनके तमाम फिल्मी, नाॅन फिल्मी एलबम की लम्बी फेहरिस्त हमारे सामने है. ये एलबम अब संगीत के वह खजाने हैं, जिनमें परम्परागत धुनों की रागमालाएं और गुहर छिपे हुए हैं.
उन्होंने रामपुर सहसवान संगीत परम्परा को महज आगे ले जाने का ही काम नहीं किया बल्कि इस परम्परा में कहीं कुछ कमी पायी तो उसे भी निकाल कर इस परम्परा को और भी ग्राह्य और समृद्ध बनाने का काम किया. ध्रुपद के वरिष्ठ कलाकार उदय भावलकर ने कहा, ‘‘रामपुर सहसवान घराने में जो आक्रामकता थी उसे कर्णप्रिय बनाने का काम गुलाम मुस्तफा खान साहब ने ही किया था.‘‘
ग़ुलाम मुस्तफ़ा खान के इंतकाल पर यही कहा जा सकता है कि संगीत की दुनिया में उस्तादों का उस्ताद अब नहीं रहा.
(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी है.)