मैनपुरी मुशायरा (दूसरी किस्त) ….. !!
शुरूआत करता हूँ अपने प्रिय शायर वसीम बरेलवी साहब से- दरअसल इस मुशायरे की सदारत ज़नाब वसीम बरेलवी साहब ही करेंगे. वसीम साहब मौजूदा दौर के उन शायरों में से एक हैं जिन्होने संवेदनाओं को महत्व देते हुए अपना रचना संसार सजाया है. ‘फिक्र’ की शायरी उनकी पहचान है. जीवन का दर्शन उनकी शायरी में लफ़्ज – लफ़्ज पगा हुआ है. मैं खुश किस्मत हूँ कि मुझे उनका बहुत प्यार मिला है. निहायत खूबसूरत और संजीदगी वाले इस इन्सान की मैं इसलिए बहुत इज्जत करता हूँ क्योंकि वसीम साहब एक अच्छे शायर तो हैं हीं–इन्सान उससे भी शानदार हैं. इस मुशायरे में वे ‘हैदराबाद‘ के उस मुशायरे को छोड़कर आ रहे हैं, जो शायद उनके लिए बेहतर प्लेटफार्म साबित हो सकता था पर उन्होने ‘मोहब्बत‘ का साथ दिया और हैदराबाद की बजाय मैनपुरी आना स्वीकार किया. वसीम साहब की गजलियात के विषय में तो कुछ भी लिखा ही नहीं जा सकता. कई शोध उन की शायरी पर हो चुके हैं. जगजीत सिंह, चन्दन दास और स्वर कोकिला लता जी तक वसीम साहब की शायरी के दीवाने हैं. ‘आँखों आँखों रहे’ और ‘मौसम अन्दर बाहर के’ जैसी कृतियों के सहारे उनकी रचनाएँ हम तक पहुँच चुकी हैं…. उनके बारे में लिख पाना मेरी औकात से बाहर है….फिलहाल मैं वसीम साहब वो ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ जो मुझे हमेशा जीने का रास्ता दिखाती है……..-
उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है,
जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है !!
नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाए
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है !!
थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटे
सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है !!
बहुत बेबाक आँखों में त’अल्लुक़ टिक नहीं पाता
मोहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है !!
सलीका ही नहीं शायद उसे महसूस करने
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है !!
वसीम साहब के बाद मुखातिब होते हैं अकील नोमानी की तरफ. अकील नोमानी भी मौजूदा दौर के उन शायरों में से एक है जिनके कंधो पर शायरी का भविष्य टिका हुआ है. हाल ही में उनका ‘रहगुजर‘ गजल संग्रह प्रकाशित हुआ है. अकील नोमानी एक खामोश शायर हैं. सच तो यह है कि वे जितने बड़े शायर हैं, उतनी मकबूलियत उनके हिस्से में नहीं आई. खैर…आज नहीं तो कल वक्त पहचानेगा उन्हेंऔर ज़रूर पहचानेगा….! वैसे अकील नोमानी इन सबसे बेखबर अपने सफर पर बढ़ते जा रहे हैं. उनका हर एक शेर उनके अहसासों में इंसानियत होने का सुबूत पेश करता है. अकील साहब ने इस मुशायरे में अव्वल दर्जे के शायरों को बुलाने में संयोजक का हाथ बंटाया है उसके लिए संयोजक उनके कर्जदार हैं. अकील तो सरकारी मुलाजिम हैं मगर उनकी शायरी में जो सोच है वो ऐसी है जो उन्हें कुछ ख़ास बनाती है। वे स्वयं ही अपने बारे में कहते हैं कि ‘‘मैने शेर कहते वक्त हमेशा फ़ितरी तकाजों और जबानो- बयान के सेहतमंद उसूलों का ही एहतराम किया है‘‘ तो कहीं से गलत नहीं लगता. उनकी इस बात को ये गज़ल और भी पुख्ता करती है-
महाजे़-जंग पर अक्सर बहुत कुछ खोना पड़ता है
किसी पत्थर से टकराने को पत्थर होना पड़ता है !!
ख़ुशी ग़म से अलग रहकर मुकम्मल हो नहीं सकती
मुसलसल हॅसने वालों को भी आखि़र रोना पड़ता है !!
अभी तक नींद से पूरी तरह रिश्ता नहीं टूटा
अभी आँखों को कुछ ख्वाबों की ख़ातिर सोना पड़ता है !!
मैं जिन लोगो से खुद को मुख़तलिफ़ महसूस करता हूँ
मुझे अक्सर उन्हीं लोगों में शामिल होना पड़ता है !!
किसे आवाज़ दें यादों के तपते रेगज़ारों में
यहॉ तो अपना-अपना बोझ खुद ही ढोना पड़ता है !!
बढ़ते हैं अगले नाम की तरफ….अगला नाम है मोहतरमा नुसरत मेहदी साहिबा का . नुसरत मेहदी भी उन शायरों में से एक हैं जिन्होंने पिछले दिनों में अपनी शायरी अपने कलाम की वज़ह से एक मुकम्मल जगह बनाई है. फिलहाल वे मध्यप्रदेश उर्दू अकादेमी के सचिव के पद का कार्य कर रही हैं…….. वैसे मोहतरमा नुसरत मेहदी का उत्तर प्रदेश से पुराना नाता है. वे नगीना, ज़िला बिजनौर में इल्तिजा हुसैन रिज़वी के घर पैदा हुई, शुरुआती तालीम उत्तरप्रदेश में ही हुई इसके बाद वे भोपाल चलीगयीं.वे शिक्षा महकमे में वे अहम ओहदे पर रहीं हैं. उनके कलाम, कहानियांअक्सर इंग्लिश, हिन्दी और उर्दू अखबारों, मैग्ज़ीन और जरनल्स में छपती रहती है. टी.वी. और रेडियों के ज़रिये भी इनके कलाम को सुना व देखा जा सकता है. समाज सेवा के शौक के अलावा समाजी व अदबी तन्ज़ीमों से जुड़ी हुई है. घर का माहौल अदबी रहा है. इनके शौहर असद मेहदी भी कहानिया लिखतें है. वे हिन्दुस्तान के कई शहरों में मुशायरों और सेमीनारों के ज़रिये भोपाल शहर की नुमाइंदिगी कर चुकी है. मैनपुरी में वे पहली दफा अपने कलाम का परचम लहरायेगीं।
इनके साथ ही एक और आमंत्रित शायर का ज़िक्र करना चाहूँगा . वे भी युवा शायर हैं और अदब के शायर हैं. नाम है मनीष शुक्ल. मनीष सरकारी मुलाजिम हैं…वैसे अगर वे सरकारी मुलाजिम न होते तो शायद उनके लिए बहुत बेहतर होता क्योंकि तब वे निश्चित ही नामवर बड़े शायरों की फेहरिस्त में होते… खैर ! मेरा और मनीष कासाथ गत 12 बरस से है. मनीष से मेरा साथ तब से है जब हमारी नयी नयी नौकरी लगी थी . हम ट्रेनिंग में लखनऊ में थे और फिनान्सियल इंस्टिट्यूट में ट्रेनिंग ले रहे थे तभी शेर ओ शायरी के शौक ने हम को एक दूसरे के करीब ला दिया . हम लोग नैनीताल में भी ट्रेनिंग साथ साथ कर रहे थे ….तब ये शौक और परवान चढा. हम दोनों घंटो एक दूसरे को शेर ओ शायरी को शेयर करते. बहरहाल मनीष के साथ रिश्ते दिन ब दिन मजबूत हुए, मुझे ये कहने में कोई हिचक नही कि मनीष आज मेरे सबसे अच्छे दोस्तों में से एक है. मेरी पत्नी अंजू के वे मुंहबोले भाई भी हैं. उम्र में 5 बरस बड़ा होने के कारण मनीष मेरे बड़े भाई के रूप में भी है. उनकी सबसे ख़ास बात ये है की अच्छे अधिकारी होने के साथ साथ वे एक अच्छे शायर भी हैं। बड़ी खामोशी के साथ वे अपना साहित्य सृजन में लगे हुए हैं और मज़े की बात ये है की उनकी शायरी में अदब तो है ही जीवन के मूल्यों की गहरी समझ भी है. मेरे अन्य शायर दोस्तों की तरह वे भी दिखावे और मंच की शायरी से दूर रहते हैं . उनको पहली बार मंच पर लाने का काम मैंने तब किया जब मैं मीरगंज में उप जिलाधिकारी था और एक मुशायरा वहां आयोजित कराया था. 1970को उन्नाव में जन्मे मनीष शुक्ला की एक ग़ज़ल यहाँ पेश है …………निश्चित रूप से अच्छी लगेगी –
कागजों पर मुफलिसी के मोर्चे सर हो गए,
प्यास के शिद्दत के मारों की अजियत देखिये ,
खुश्क आखों में नदी के ख्वाब पत्थर हो गए
ज़र्रा ज़र्रा खौफ में है गोशा गोशा जल रहे,
अब के मौसम के न जाने कैसे तेवर हो गए !!
सबके सब सुलझा रहे हैं आसमाँ की गुत्थियां,
मस’अले सारे ज़मी के हाशिये पर हो गए !!
फूल अब करने लगे हैं खुदकुशी का फैसला,
बाग़ के हालात देखो कितने बदतर हो गए !!