मुंतजि’र सी रात थी, थक हार के अब सो गई

मुंतजि’र सी रात थी, थक हार के अब सो गई
आस जो आने की थी, वीरानियों में खो गई

चाँद से इक बार फिर, क्यूँ हो गया झगड़ा मेरा
एक वही तो दोस्त था, अब दुश्मनी सी हो गई

जुर्म बस इतना सा था, ये दिल किसी पे आ गया
और फिर ये उम्र अपनी इक सजा सी हो गयी

हादसे होते रहे और लब पे शिकवा भी न था
रिस रहे थे ज़ख़्म इतने, पीर मरहम हो गई
मुंतज़िर = प्रतीक्षारत

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