ख़ूबसूरत से कुछ गुनाहों में

ख़ूबसूरत से कुछ गुनाहों में
उम्र गुज’रे तेरी पनाहों में

ख़्वाब गिरते ही टूट जाते हैं
कैसी फिसलन है तेरी राहों में

अब ज’रूरत न हो तख़ातुब की
काश ऐसा असर हो आहों में

शाम चुपचाप आ के बैठ गयी
तेरे जलवे लिये निगाहों में

ऐसी तक’दीर ही न थी वरना
हम भी होते किसी की चाहों में

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