हसरतें दम तोड़ती है यास की आग़ोश में

‘‘हसरतें दम तोड़ती है यास की आग़ोश में
सैकड़ों शिकवे मचलते हैं लबे-ख़ामोश में’’¹

रात तेरे जिस्म की खुशबू से हम लिपटे रहे
सुब्ह बैरन सी लगी जैसे ही आए होश में

सिलसिले मिलते नहीं उनके कभी तारीख में
उम्र जिसने काट दी हो जिसने सिज्“द-ए-पैबोस में

यास = निराशा
¹ (ये शेर फि’राक गोरखपुरी साहब का है।)

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