रिश्तों और जज़्बातों के शायर – आलोक श्रीवास्तव !
आलोक के विषय में मेरा अब लिखना ठीक नहीं…. मैं सीधे उनके कलाम पर आता हूँ. महसूस करिए इस शायर की संवेदनाओं को और उनकी जीवन के मर्म समझने की अदा को…..-
ये जिस्म क्या है कोई पैरहन उधार का,
यही संभाल के पहना,यहीं उतार चले।
और
भौचक्की है आत्मा, सांसे भी हैरान,
हुक्म दिया है जिस्म ने, खाली करो मकान,
आँखो में लग जाये तो, नाहक निकले खून,
बेहतर है छोटे रखें, रिश्तों के नाखून।
उनके दोहे कहने का अंदाज़ तो देखिये-
माँ बेटे के नेह में, एक सघन विस्तार,
ताजमहल की रूह में, जमना जी का प्यार।
सारा बदन हयात की खुशबू से भर गया,
शायद तेरा ख्याल हदों से गुजर गया,
किसका ये रंग रूप झलकता है जिस्म से,
ये कौन है जो मेरे लहू में उतर गया।
या फिर
जाने क्यों मेरी नीदों के हाथ नहीं पीले होते
पलकों से ही लौट गयी है, सपनो की बारातें सच.
वही आंगन, वही खिड़की , वही दर याद आता है,
मैं जब भी तन्हा होता हूँ, मुझे घर याद आता है,
सफलता के सफर में तो कहाँ फुर्सत के, कुछ सोचें,
मगर जब चोट लगती है, मुकद्दर याद आता है,
मई और जून की गर्मी, बदन से जब टपकती है,
नवबर याद आता है, दिसम्बर याद आता है,
वाह ! क्या अन्दाजे बयाँ है और क्या गुफ़्तगू है।
घर की बुनियादी दीवारें , बामोदर थे बाबूजी
सबको बांधे रखने वाला खास हुनर थे बाबूजी
कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे, कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस आधा डर थे बाबूजी।
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घर में झीने रिश्ते मैने लाखों बार उधड़ते देखे,
चुपके -चुपके कर देती है जाने कब तुरपाई अम्मा,
सारे रिश्ते जेठ दुपहरी गर्म हवा आतिश अंगारे,
झरना , दरिया, झील, समुंदर, भीनी सी पुरवाई अम्मा।
बाबूजी गुजरे, आपस में सब चीजे तक्सीम हुई, तब
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा।
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