……कुछ लोग हैं अब भी नगीने से !

ये ज़िन्दगी है, इस ज़िन्दगी में हर आदमी को बहुत से लिबास बदलते रहने होते हैं…….! आम आदमी की बात करें तो उसे एक ही समय में बहुत से किरदार अदा करने पड़ते हैं…….! इसी बीच खुद को बचाए रखने कि ज़द्दोज़हद- कवायद भी चलती रहती है…….! अजीब सी कशमकश है ये, बहुत आसाँ नहीं होता अपने आपको बचाए रखना…….! जीवन में संतुलन बहुत ज़ुरूरी है, असल में होता यह है कि “एक को मनाऊँ तो दूजा रूठ जाता है…….! इन्ही सब हालात में इसी बेकसी और बेबसी को बयां करती एक ग़ज़ल हो गयी……. सोचा आप सबको पेश करूँ……..!!! मुलाहिजा फरमाएं…..,
गुज़ारी ज़िन्दगी हमने भी अपनी इस करीने से,
पियाला सामने रखकर किया परहेज पीने से !!
अजब ये दौर है लगते हैं दुश्मन दोस्तों जैसे,
कि लहरें भी मुसलसल रब्त रखती हैं सफी़ने से !!
न पूछो कैसे हमने हिज्र की रातें गुजा़री हैं
गिरे हैं आँख से आँसू उठा है दर्द सीने से !!
यहाँ हर शख्स बेशक भीड़ का हिस्सा ही लगता है
मगर इस भीड़ में कुछ लोग हैं अब भी नगीने से !!
समझता खूब हूँ जा कर कोई वापस नहीं आता
मगर एक आस पर ज़िन्दा हूँ मैं कितने महीने से !!
रहें महरूम रोटी से उगायें उम्र भर फस्लें
मजा़क ऐसा भी होता है किसानों के पसीने से !!कभी द़र्जी, कभी आया, कभी हाकिम बनी है माँ
नहीं है उज़्र उसको कोई भी किरदार जीने से !!

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