काव्य चर्चा-शायरी की रवायतों और रिवाज

शायरी की आज तक न जाने कितनी परिभाषाएं दी जा चुकीं हैं और आज तक दी जा रही हैं लेकिन ये सारी परिभाषाएं जब ठीक से यह परिभाषित नहीं कर सकीं कि शायरी क्या है, तो सोचिये अच्छी शायरी को परिभाषित करना कितना कठिन होगा?

हमें यह तो बता दिया जाता है कि फ़लां शेर अच्छा है और फ़लां शेर ख़राब, लेकिन कोई यह नहीं बताता कि ख़राब शेर ख़राब और अच्छा शेर अच्छा कैसे है? यह शायरी की खूबी भी है और ख़ामी भी। 

ख़ामी इसलिए कि शायरी में अंकगणित की तरह कोई फ़ार्मूला नहीं होता जिससे दो और दो का जोड़ चार साबित करके दिखा दिया जाय जिससे इंकार की कोई गुंजाइश न हो। मजे़ की बात यह है कि शायरी की खूबी भी उसका यही पहलू होता है कि शायरी में फ़ार्मूले से कुछ भी साबित नहीं किया जा सकता।

हालांकि ऊपर कहा जा चुका है कि अच्छी शायरी की तो बात छोड़िये शायरी को अभी मुकम्मल तौर पर परिभाषित नहीं किया जा सका। जैसे ही हम यह कहते हैं कि फ़लां शेर अच्छा है तो हम पर कहीं न कहीं एक जिम्मेदारी आ जाती है कि हम यह भी बतांए कि वह शेर क्यूं अच्छा है। इसका फै़सला कैसे हो?

क्यूँ जल गया ना ताब-ए-रुख-ए-यार देखकर

उर्दू शायरी में ऐसे बहुत सारे अश्आर हैं जिनके अच्छा और बड़ा शेर होने से किसी को इंकार नहीं। उन तमाम अश्आर पर गुफ़्तगू तो मुमकिन नहीं है लेकिन उनमें से किन्हीं दो अश्आर को सामने रखकर यह समझने की कोशिश करते हैं कि यह शेर अच्छे और बड़े क्यों हैं?

 ध्यान रहे कि इस गुफ़्तगू से बरामद नतीजा अच्छी शायरी पर कोई आख़िरी फै़सला नहीं बल्कि अच्छी शायरी को परिभाषित करने की कोशिश का सिर्फ एक रफ़ ड्राफ़्ट होगा।

मिर्ज़ा ग़ालिब के दो शेर हैं जिनके बड़ा और अच्छा शेर होने पर शायद ही किसी को कोई एतराज़ हो…

क्यूँ जल गया ना ताब-ए-रुख-ए-यार देखकर
जलता हूँ अपनी ताक़त-ए-दीदार देखकर

इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं
जी खुश हुआ है राह को पुरख़ार देखकर

दोनों अश्आर का मतलब बिल्कुल साफ है। पहले शेर में महबूब के हुस्न को मुबालिग़ा यानी अतिशयोक्ति अलंकार के साथ बयान किया गया है। दूसरे शेर में शायर ने अपनी परेशानियों को बयान करते हुये कहा है कि उसकी जि़ंदगी में इतनी परेशानियां हैं कि कोई नई परेशानी ही पुरानी परेशानी का हल बनती है। यहाँ भी अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग है।

…रदीफ़ किस तरह क़ाफ़िये से गंठी हुई है

अगर हम बात को और संक्षिप्त करें तो दोनों शेरों से दो बातें बरामद होती हैं –

1- शायर का महबूब बहुत हसीन है, और
2- शायर की ज़िंदगी में बेहद परेशानियाँ हैं।

 आप ही बताइये कि इन दोनों बातों में ऐसी क्या ख़ास बात है जिनके बिना पर इन्हें बड़ा शेर माना जाय। हर इंसान को अपना महबूब बहुत हसीन लगता है और आज ऐसा कौन इंसान है जो अपनी जगह परेशान नहीं। लेकिन इतनी मामूली बातों को बयान करने के बावजूद यह दोनों शेर न सिर्फ अच्छे बल्कि उर्दू अदब के बड़े शेरों में शुमार होते हैं। इसकी क्या वजह है….

इन शेरों पर ग़ौर कीजिये। हर शेर की तरह इन शेरों की एक सीनरी है और दोनों शेरों में एक लफ़़्ज़ भी ऐसा नहीं जो उस सीनरी में बेमेल नज़र आता हो। यार के चहरे की चमक, (ताब-ए-रूख-ए-यार) उससे जलना, और उसे देखकर अपनी ज़ात के न जल जाने से जलना यानी कुव्वत-ए-दीदार होना, पैर, आबले, राहे-पुरख़ार यानी काँटों भरी राह, दोनों शेरों की इन सारी चीजों में एक सिलसिला नज़र आता है। जलना लफ़्ज़ का दो अलग अर्थ में प्रयोग देखिए। दूसरे मिसरे में जलना मुहावरे का कितना बेहतर प्रयोग है।

इन शेरों में देखिए कि रदीफ़ किस तरह क़ाफ़िये से गंठी हुई है। यह आज के कुछ नये लिखने वालों के लिये भी फ़िक्र का मुक़ाम है जो रदीफ़ को पूरी तरह नज़रअंदाज़ करके सिर्फ़ किसी नये क़ाफ़िये को खपा देने को नयी शायरी समझते हैं।

हम हुये तुम हुये कि मीर हुये

इन शेरों के ग़िनाए पहलू यानी संगीतात्मक पक्ष को देखिये। कोई एक ऐसी आवाज़ यानी मात्रा नहीं जो मिसरे के संगीत को ख़राब कर रही हो जलता हूं अपनी ताक़त-ए-दीदार देखकर इस मिसरे की मात्राएं देखिये। आ, ऊ, ई, आ, ए, ई, ऐ- क्या यह आवाजे़ं एक सुर में नहीं महसूस हो रहीं।

हालांकि ये बड़ी सरसरी सी बातें हैं क्योंकि इन शेरों की खूबियों पर तो एक किताब लिखी जा सकती है, लेकिन इस तेज़ रफ़़्तार ज़माने में जब हर कोई किसी भी तरह कामयाब या मशहूर होने की जल्दी में हो तो कौन इतने विस्तार से लिखे और अगर किसी ने लिख भी दिया तो पढ़े कौन…. बहरहाल..।

इस गुफ़्तगू से अभी भी अच्छे शेर की कोई ठोस परिभाषा सामने नहीं आती मगर फिर भी कुछ बातें ज़रूर निकलती हैं जैसे-

(1) अच्छे शेर में ‘‘क्या कहा गया है’’ से ‘‘कैसे कहा गया है’’ ज्यादा महत्वपूर्ण होता है।
(2) अच्छे शेर में एक सीनरी होती है और उसमें कुछ भी उस सीनरी से बेमेल नहीं होता।
(3) अच्छे शेर में रदीफ़ और क़ाफ़िया आपस में गंठे हुये होते हैं
(4) अच्छे शेर में रदीफ़ का निभाव क़ाफ़िये को खपाने से ज़्यादा महत्वपूर्ण है।
(5) अच्छे शेर का एक संगीतात्मक पक्ष भी होता है क्यूंकि शायरी और विशेषतया ग़ज़ल की शायरी वह अल्फ़ाज़ होते हैं जिन्हें ज़रूरत पड़ने पर गुनगुनाया भी जा सके।
(6) अच्छे शेर में अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग एक आम तजुर्बे को ख़ास बनाता है हालांकि सहल -ए- मुम्तिना की अच्छी शायरी इसका अपवाद भी हो सकती है।
(7) तक़रीबन 95 प्रतिशत अच्छे शेर इंसान की अंदरूनी दुनिया की तरफ़ खुलते हैं ना कि बाहरी दुनिया की तरफ़
(8) अच्छे शेर में शायर का निजी तजुर्बा पूरी इंसानियत का तर्जुबा बन जाता है और इसके लिये शायर इस्तेआरा यानी रूपक अलंकार का प्रयोग करता हैं। जितना मज़बूत इस्तेआरा होता है शेर उतना ही वैश्विक हो जाता है।
(9) शेर में भी लफ़्ज़ होते हैं और नस्र यानी गद्य में भी लेकिन शेर लफ़्ज़ को नस्र की सतह से जितना ऊपर उठा देता है उतना ही बड़ा हो जाता है।
(10) अच्छा शेर दो विरोधाभासी चीज़ों को एक साथ प्रयोग कर के एक नई थीम बना देता है बिल्कुल उसी तरह जैसे हमारी पूरी कायनात में नई चीज़ हमेशा दो विरोधाभासी धाराओं के टकराने से बनती है
(11) अच्छे शेर का विलोम ख़राब शेर नहीं होता बल्कि एक दूसरी क़िस्म का अच्छा शेर होता है जिसमें ऊपर लिखी गयी बातें नहीं पाई जाती जैसे-

हम हुये तुम हुये कि मीर हुये
उसकी जुल्फ़ों के सब असीर हुये 
– मीर
….
ब़स यूँ ही मुझको गाल रखने दे
मेरी जाँ आज गाल पर अपने 
– जौन एलिया

इक लड़का था इक लड़की थी
आगे अल्लाह की मर्ज़ी थी 
– मुहम्मद अल्वी

दरकार था सफ़र तो कोई हमसफ़र ना था

इन शेरों में जो तजुर्बे हैं वो जिस क़दर सादा हैं उसी सादगी से बयान भी किये गये हैं। यहां किसी, उपमा, रूपक या अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग नहीं हुआ लेकिन यह अश्आर भी हमारे अंदर की तरफ़ बड़ी शिद्दत के साथ खुलते हैं जिस तरह वह अश्आर जिनका ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है।

अब इस तमाम गुफ़्तगू को ज़हन में रखकर इन अश्आर को पढ़िये

दरकार था सफ़र तो कोई हमसफ़र ना था
जब हम सफ़र मिला तो मसाफ़त नहीं रही।
…..
कल जो किया था वैसा ही फिर आज किया
शाम की ख़ातिर सारा दिन ताराज किया
….
ऐसे इक तपते सफ़र की दास्ताँ थी जि़ंदगी
धूप थी साये में लेकिन धूप में साया ना था।

बीनाईयों की वुस्अतें अल्लाह की पनाह
जिसकी ना कोई शक्ल थी देखा किये उसे।

मैं यह नहीं कहता कि अच्छे शेर से मुताल्लिक़ वह तमाम बातें जिनका ज़िक्र ऊपर किया गया है इन अश्आर में मौजूद हैं लेकिन ईमानदारी से देखें तो ज़्यादातर ज़रूर मिल जायेंगी।

यह शेर पवन कुमार के हैं जिनका दूसरा मज्मूआ ‘आहटें’ पिछले दिनों मंज़र-ए-आम पर आया है। यह तमाम गुफ़्तगू न मैनें इज़्हार-ए-इल्म (जो मुझे बिल्कुल नहीं है) के लिए की न एक आलोचक के बतौर। 

यह गुफ़्तगू मैंने अपने आप से की है। मुझे तो ऊपर पवन कुमार ही लिखना बड़ा अजीब लगा क्योंकि मुझे तो सोच तक में उन्हें भैया कहने की आदत है। 

कब तलक मैं ख़म रखूं गर्दन को

जब यह अश्आर मुझे अच्छे लगे तो एक सवाल मेरे ज़हन में आया कि कहीं इस पसंद में उस मुहब्बत का तो दख़ल नहीं जो मुझे उनके अपने से है और बराबर उनके साथ से मिलती रही है। लेकिन अच्छी शायरी पर इस बहस के बाद निकले नतीजे की रौशनी में शायद मैं यह कह सकता हूँ कि इस पसंद में उस मुहब्बत का कोई दख़्ल नहीं।

इस मंज्मूए का शायर पेशे से आईएएस अफसर है। इससे पहले इसी शायर का मज्मूआ ‘वाबस्ता’ के नाम से मंज़र-ए-आम पर आ चुका है और मुझे बड़ी खुशी है कि इस मंज्मूए की शायरी पहले मंज्मूए से पीछे नहीं हटी बल्कि आगे बढ़ी है।

वाबस्ता का एक शेर मुझे हमेशा याद रहता है- 

कब तलक मैं ख़म रखूं गर्दन को सीने की तरफ़
आसमां इक चाहिये मुझको कि सर मेरा भी है।।

इस अहसास की झलकियां उनकी इस किताब में भी मिलती हैं ……

आ गया जिस्म में ख़म झुक गयी गर्दन अपनी
उसपे खुशफ़हमी कि दस्तार सँभाले हुये हैं

उनके पेशे के बारे में ऊपर बताया जा चुका है और ये अश्आर उनकी जि़ंदगी की तरफ़ वे खिड़कियां खोलते हैं जो बज़ाहिर बंद रहती हैं। एक और शेर देखिये-

शाम हुई दफ़्तर से निकला
आख़िर चिड़िया घर से निकला

हम दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी हैं और यहाँ हर इंसान एक भीड़ में घिरा हुआ है लेकिन इस भीड़ की कोख से पैदा होने वाली तन्हाई इस दौर के इंसान की सबसे बड़ी ट्रेजडी है-

किसी ने रक्खा है बाजा़र में सजा के मुझे
कोई ख़रीद ले क़ीमत मिरी चुका के मुझे

इसी ग़ज़ल से एक और खू़बसूरत शेर–

उसी की याद के बर्तन बनाये जाता हूँ
वही जो छोड़ गया चाक पर घुमा के मुझे

ये राज़ पूछना है जज़ीरे से मुझको आज

जजीरा उर्दू शायरी में काफ़ी इस्तेमाल हुआ है और ज़्यादातर शेरों में वह या तो सफ़र के दौरान कुछ देर ठहरने की अलामत रहा है या किसी गुमनाम शै की लेकिन एक इंसान जो भीड़  में अपनी अलग पहचान बनाने की लड़ाई लड़ रहा है उसे जज़ीरे को देखकर क्या ख़्याल आता है-

ये राज़ पूछना है जज़ीरे से मुझको आज
वह किस तरह बचा है समंदर के फेर से

पवन जी की शायरी में खुद से बातचीत ज्यादा है। यही वजह है कि जब आप उनकी शायरी पढ़ते हैं तो फिर वो उनकी कम आपकी कहानी और अहसास ज्यादा बयान करती है।

याद तेरी आई जीने की इजाज़त मिल गई
हिज्र के तपते हुये लम्हों से राहत मिल गई।

अब इसमें क्या कुसूर समंदर का है अगर
काग़ज़ की कश्तियों को किनारा नहीं मिला

समाज और उस के मुद्दों को सामने रखने के नाम पर शाइरी में जो फूहड़ पन परोसा जा रहा है वह किसी से छुपा नहीं लेकिन आहटें और वाबस्ता का शायर दिखाता है कि समाज और उस के मुद्दों को बिना फूहड़पन और शायरी का मेयार गिराए बिना भी रखा जा सकता है। 

शासन में ऊंचे ओहदे पर होने के कारण वह रोज़ समाज की कड़वी सच्चाई से रू-ब-रू होता है। विकास के रास्ते पर तेज़ी से चलता हुआ हमारा समाज एक बड़े वर्ग को कहीं पीछे छोड़ गया है। शायर की संवेदनशीलता इसे नज़र अंदाज नहीं कर पाती। देखिए आहटें का शायर इस एहसास को कैसे बयान करता है-

जुनू में रेत को यूं ही नहीं निचोड़ा था
किसी की प्यास ज़्यादा थी पानी थोड़ा था

इस शेर में हमारे समाज के एक बड़े वर्ग का दर्द किस मज़बूती से उभर कर आया है। शेर बता रहा है कि जब पानी कम और प्यास ज़्यादा हो तो जुनून यानी उन्माद भड़कता है और लोगों को रेत निचोड़ने पर मजबूर कर देता है। 

धीरे धीरे दर्द फना हो जाता है

अगर आप में थोड़ी सी संवेदनशीलता है तो इस शेर के साथ दिमाग में बनने वाली तस्वीर आपको हमारे समाज के एक बड़े वर्ग से मिलवा सकती है। ऐसा ही एक और शेर शायर कहता है –

मिला ना पानी तो तेज़ाब पी लिया हम ने
बला की प्यास थी हर हाल में बुझाना था

अपने आस पास देखिये, ऐसे बहुत लोग नज़र आ जाएंगे जो पानी ना होने के कारण तेज़ाब पीने को मजबूर हैं-

दोनों शेर देखिये, इनमें कहीं काव्यात्मकता से कोई समझौता नहीं किया गया है, मगर दोनों ही शेर अपनी बात बड़ी मज़बूती से पहुंचा रहे हैं। पवन जी की एक ग़ज़ल को शायद आपने मशहूर गायक रूप कुमार राठौर की मखमली आवाज में सुना हो।

उस ग़ज़ल का जिक्र किए बिना पवन जी की शायरी के सफर को पूरा नहीं किया जा सकता। हर इंसान जब जिंदगी की शुरुआत करता है तो वह उस आदमी से बिल्कुल अलग होता है जो वो समाज से लड़ते-लड़ते बन जाता है। इस परिवर्तन को पवन कुमार ने बड़ी खूबसूरती से बयान किया है –

धीरे धीरे दर्द फना हो जाता है
धीरे धीरे जी हल्का हो जाता है

धीरे धीरे ज़ख्म फज़ा के भरते हैं
धीरे धीरे रंग हरा हो जाता है

धीरे धीरे आंख समंदर होती है
धीरे धीरे दिल सेहरा हो जाता है

धीरे धीरे मौसम रंग बदलते हैं
धीरे धीरे क्या से क्या हो जाता है

धीरे धीरे लगती जाती हैं चोटें
धीरे धीरे दिल पक्का हो जाता है

इस पूरी गुफ्तगू में केवल ये कहने की कोशिश भर की है कि अच्छी शायरी का वक्त अभी खत्म नहीं हुआ है। पवन कुमार जैसे शायर शायरी के उस ऊंचाई को बनाय रखने और रिवाजों को निभाने के आदी है जो मशहूर शायर अपने पीछे छोड़ गए हैं।

किसी से ‘वाबस्ता’ होने के साथ शुरू हुआ यह सफ़र ‘आहटों’ की मंजिल तक पहुंच गया है। उम्मीद करनी चाहिए कि इन आहटों को अदब के दरवाजे पर एक दस्तक तस्लीम किया जायगा।