“तुम लोग कमजोर और डरे हुए लोग हो, इसलिए ही तुम लोगों को विचारों से डर लगता है। तुम मोम के बने हुए पुतले हो, जो विचारों की आग का सामना कर ही नहीं सकते, किसी भी तरह नहीं कर सकते। मोम के सारे पुतले चाहते हैं कि सारे सूरज नष्ट कर दिए जाएँ समाप्त कर दी जाए सारी ऊष्मा, सारी गर्मी, ताकि मोम के पुतलों का साम्राज्य स्थापित हो सके।”
( ‘जिन्हें जुर्म-ए-इश्क पे नाज़ था’ उपन्यास से)
बहुत पहले भगत सिंह ने कहा था कि ‘मानव जाति को सबसे ज्यादा नुकसान धर्म ने पहुँचाया है।’ भगत सिंह के इस कथन को इतिहास और वर्तमान की कसौटी पर कसते हुए उपन्यासकार पंकज सुबीर ने अपने नए उपन्यास ‘जिन्हें जुर्म-ए-इश्क पे नाज़ था’ में सही ठहराने की कोशिश की है। एक सफल विश्लेषक के रूप में उन्होंने इस सूक्ति की गहरे से पड़ताल की है। धर्माें का इन्सानियत पर क्या प्रभाव पड़ा है, यह जानने के लिए वे एक शोधार्थी की भाँति भारतीय इतिहास से लेकर वैश्विक इतिहास के अथाह समन्दर में गोते लगाते हैं, कुछ सीपियां कुछ गुहर ढूंढकर लाते है।
पूरे उपन्यास को पढ़ते वक़्त पाठकों के मन मे यह जिज्ञासा बानी रहती है कि क्या इस दुनिया का अंत इतना भयावह होगा…..। पूरे नाॅवेल को पढ़ते वक्त पाठक के दिलो-दिमाग में यही सवाल चक्रमण करता रहता है। बहरहाल एक ‘थ्रिल’ से जूझने के बाद उपन्यास का सुखद समापन होता है।
पंकज सुबीर का यह उपन्यास अंधेरे में एक रोशनदान की तरह है जो रोशनी बिखेरने का काम करेगा।
समीक्षक – पवन कुमार
पुस्तक-‘ जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था’ (उपन्यास)
प्रकाशन- शिवना प्रकाशन सीहोर (म.प्र.)