गाँवों में भी अब पहले सा अपनापन और प्यार नहीं !!

kadaएक मुद्दत से अपनी प्रिय विधा ग़ज़ल को लेकर कोई पोस्ट नहीं लगा पाया था…… शायद इसकी एक वज़ह यह थी कि व्यस्तता बहुत रही। ग़ज़ल पोस्ट करने के लिए जब एक मित्र ने शिकायती लहजे में बात की तो लगा कि ग़ज़ल पोस्ट कर ही देनी चाहिए, सो आज एक ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ…….. मुलाहिजा फरमाएं.

अपने अपने हालातों से कौन यहाँ बेज़ार नहीं !!
ग़म से परेशाँ सब मिलते हैं, मिलते हैं गमख्वार नहीं !!

या के मंजिलें दूर हो गयीं, या के रास्ते मुश्किल हैं,
मेरे पाँवों में पहले सी तेजी और रफ़्तार नहीं !!

महज हाकिमों की दुनिया ही उनकी ख़ातिर ख़बरें हैं,
मज़लूमों के हक में लिखने वाले अब अखवार नहीं !!

शह्रों की तहज़ीब पे जब भी तंज कसूँ तो लगता है,
गाँवों में भी अब पहले सा अपनापन और प्यार नहीं !!

बेच चुका हूँ नज़्में ग़ज़लें महफ़िल महफ़िल गा गाकर,
मेरे हिस्से में अब कोई मेरा ही अशआर नहीं !!

कहने को मैं रंग शक्ल में उसके जैसा हूँ लेकिन ,
मेरे लहज़े में उस जैसा पैराया-ए-इज़हार नहीं !!

मेरे मुँह पर मेरे जैसी उसके मुँह पर उस जैसी,
रंग बदलती इस दुनियाँ में सब कुछ है किरदार नहीं !!

ग़ज़ल का कोई भी शेर अगर आपको पसंद आ सका तो अपनी कोशिश कामयाब समझूंगा…….. खुदा हाफिज़ !!!!!!

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