दो सौ साठ रातों के वे तमाम ख़्वाब जिनको हमने सोते-जागते उठते-बैठते ख़यालों में या बेख़याली में देखा था आज पूरे सात सौ तीस रोज के हो गए हैं ख़्वाबों को बुनना और बुनने के बाद उन्हें पहनना कितना ख़ुशगवार होता है आज तुम सात सौ तीस रोज की...
उसे बेवफ़ा होना ही था, मुझसे सिलसिला तोड़ना ही था कोई राब्ता रखना ही न था, दो कदम साथ चलना भी न था एक रोज उसे बदल ही जाना था और एक रोज मुझे संभल ही जाना था। वफ़ा की राह में वो चल न पाएगा, मुझे यकीन था,...
ज़ात घर घराना मुल्क पैदाइश माँ और भी कई फितरतें इंसानी हों या ख़ुदाया एक सी होने के बावजूद उन दोनों के नक़्श कितने जुदा हैं। एक ही पहाड़ी दोनों की माँ है एक ही मुल्क इन दोनों की पहचान है, पैदाइश भी दोनों की एक सी है, और...