कविता परस्पर की कविताओं में झांकती है मन की जमीन पर लरजती संवेदनाएं

साहित्य में एक नया तबका सामने आ रहा है नौकरशाह कवियों-लेखकों का. राजस्थान कैडर के आईएएस डॉ जितेंद्र सोनी द्वारा संपादित कविता परस्पर में 32 प्रशासनिक अधिकारियों की कविताएं सम्मिलित हैं.

कविता का समाज दिनोंदिन बड़ा हो रहा है. पहले कविता में कोई वर्गीकरण न था. वाद थे और आंदोलन. प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, छायावाद, नई कविता, जनवादी कविता, गीत, प्रगीत, नवगीत आदि. इधर जब से भूमंडलीकरण की चपेट में दुनिया आई है, अस्मिता विमर्शों की बहार आई है, साहित्य में अनेक नए विमर्श पैदा हो गए हैं. स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श आदि. साहित्य में एक नई कोटि प्रवासी साहित्य की विकसित हुई तो प्रवासी साहित्य की दुनिया भी वृहत्तर होती गयी. अब साहित्य में एक नया तबका सामने आ रहा है नौकरशाह कवियों-लेखकों का. वे भले ही प्रशासनिक सेवाओं में हों, उनके भीतर साहित्य हिलोरें लेता है. ऐसी ही एक किताब ‘कविता परस्पर’ आई है भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों की कविताओं, गज़लों, नज़्मों की जो न केवल अपनी प्रशासनिक क्षमताओं के कारण जाने जाते हैं बल्कि अपनी कविता और शायरी के बलबूते भी देश दुनिया में नाम कमा रहे हैं.

राजस्थान कैडर के आईएएस डॉ जितेंद्र सोनी द्वारा संपादित कविता परस्पर में ऐसे 32 प्रशासनिक अधिकारियों की कविताएं सम्मिलित हैं. इनमें डॉ हरिओम जैसे सिद्धहस्त ग़ज़लगो और कवि हैं तो संजीव बख्शी जैसे सुपरिचित कवि जो पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के परिवार से नाता रखते हैं और भूलनकांदा उपन्यास सहित कई कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. यहां ग़ज़लों के नामचीन हस्ताक्षर लखनऊ के आईएएस अधिकारी पवन कुमार, मुंबई के पुलिस महानिरीक्षक कैसर ख़ालिद और लखनऊ के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी मनीष शुक्ल की गजलें हैं तो सुपरिचित कवि व छत्तीसगढ़ के आईएएस अधिकारी संजय अलंग, भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी एवं युवा कवि तुषार धवल व आईआरएस अधिकारी सुपरिचित चित्रकार कवयित्री संगीता गुप्ता की कविताएं. इन नामचीन अधिकारियों के साथ पुस्तकों के पठन पाठन के लिए समर्पित रहे आईपीएस अधिकारी विकास नारायण राय, पल्लवी त्रिवेदी, जितेंद्र कुमार सोनी, मनमोहन, शीला दहिमा, शशांक गर्ग, कृष्ण कुमार पाठक एवं कृष्ण कुमार यादव की कविताएं भी शामिल हैं.

भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा, भारतीय राजस्व सेवा व राज्य प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारियों की इन कविताओं, गजलों, नज्मों से गुजरते हुए यह अहसास होता है कि इनमें जीवन के तमाम क्रिया-व्यापारों से जुड़े सवाल इनकी रचनाओं में उभर कर सामने आए हैं. आम आदमी की तरह इनके भीतर भी किसी मुद्दे को लेकर वैसा ही पीड़ा का अहसास दिखता है जैसा किसी सामान्य कवि में. कभी-कभी कविताओं को पढ़ते हुए यह वर्गीकरण भी बेमानी प्रतीत होता है और लगता है कि ये सब मुख्य धारा के कवि ही हैं जो कविता के मुहावरे से पूरी तौर पर परिचित हैं. वे जो कुछ रच रहे हैं रचयिता के स्वप्न‍ से भरे हुए दिखते हैं.
आइए, पहले इनकी ग़ज़लों का जायज़ा लेते हैं.

पहले ही कवि अजय पांडे ‘सहाब’ क्या खूब ग़ज़लें लिखते हैं. वे कहते हैं:

चुटकी भर उल्लास मिला है
फिर कितना संत्रास मिला है

पीड़ा रानी, दुख राजा का
बस इतना इतिहास मिला है.

कैसर ख़ालिद मुंबई में ग़ज़लकारों की फेहरिश्त में अलग मुकाम रखते हैं. उनकी गजल के चंद अशआर:

रहे नाकाम सारी उम्र फिर भी
कहां उम्मीद छोड़ी है दुआ ने.

जो मोहसिन थे वही क़ातिल भी ठहरे
दिखाया ये तमाशा भी कज़ा ने.

और उनकी ग़ज़ल का यह शेर कितना नाजुक है-

पहले इसी मिट्टी से बनना है सँवरना है
फिर गुंचा ओ गुल में भी हमको ही बिखरना है

अफ़लाक की वादी के मग़रूर मुसाफिर सुन
इक रोज बुलंदी से तुझको भी उतरना है

काग़ज पे हर इक जज्बा ये सोच के रखते हैं
हर शेर किसी दिल की वादी से गुज़रना है

अपने संग्रह वाबस्ता से प्रसिद्ध पवन कुमार की गजलों में एक सुगठित विन्यास है जो कम लोगों में दिखता है. उनके अशआर में ज़दीद शायरी की झलक मिलती है. कुछ अशआर मुलाहिजा हों-

किसी ने रखा है बाजार में सजा के मुझे
कोई खरीद ले कीमत मेरी चुका के मुझे

मैं ऐसी शाख हूँ जिस पर न फूल पत्ते हैं
तू देख लेता कभी काश, मुस्कुरा के मुझे.

क़सीदे पढ़ता हूँ मैं उसकी दिलनवाज़ी के
ज़लील करता है अकसर जो घर बुला के मुझे.

लखनऊ के ही नायाब शायर मनीष शुक्ल को गज़ल की दुनिया में भला कौन नहीं जानता. सधी हुई बहर, कसा हुआ काफिया रदीफ उनकी शायरी जैसे एक फिनिश्ड प्रोडक्ट की तरह सुचिक्कन लगती है. कुछ ग़ज़लों के चंद अशआर देखें-

तू मुझको सुन रहा है तो सुनाई क्यों नहीं देता
ये कुछ इल्जाम हैं मेरे सफाई क्यों नहीं देता

मैं तुझको जीत जाने की मुबारकबाद देता हूँ
तू मुझको हार जाने की बधाई क्यों नहीं देता

इश्क किया तो टूट के जी भर नफरत की तो शिद्दत से
अपने हर किरदार का चेहरा हमने उजला रखा है.

सिर्फ बयाबॉं बचता हम में बिल्कुल जंगल हो जाते
शेर न कहते तो हम शायद अब तक पागल हो जाते.

काश मिरे मिसरों से बिल्कुल उसकी आंखें बन जातीं
काश मिरे अल्फाज़ किसी की आंख का काजल हो जाते.

भोपाल के शशांक गर्ग के पास ग़ज़ल की एक मीठी धुन है. एक गजल का उनका शेर है-

होता नहीं गुज़र यहां चल अपने घर फकीर
अब कौन दे इस घर का किराया बढ़ा हुआ.

ग़ज़ल का जिक्र हो और डॉ हरिओम का न हो, ऐसा हो नहीं सकता. अच्छे कवि, कथाकार व अच्छे गायक होने के साथ वे एक अच्छे ग़ज़लगो भी हैं. जितनी कशिश के साथ वे लिखते हैं उतनी ही कशिश के साथ वे एक पेशेवर अंदाज के साथ गाते भी हैं. एक ग़ज़ल में वे कहते हैं-

मुझे सुकून के लम्हात बुरे लगते हैं
मेरे वजूद में सौ इंकलाब पैदा कर.

फ़लक पे शाम अँधेरों का जाल बुनने लगी
चल आ ज़मीं पे कोई आफ़ताब पैदा कर.

कविता परस्पर की तमाम कविताएं उम्दा हैं. इन अधिकारियों के पास कविता की भाषा है, जीवन को देखने का एक क्रिटिकल नज़रिया है. इनकी संवेदना की स्याही काफी नम है. वह लोगों के दुख से भीगी हुई लगती है तो दूसरों के सुख दुख को साझा करने की ख्वाहिश भी उसमें नजर आती है. कृष्ण कुमार यादव ने अंडमान के आदिवासियों को याद किया है तो कृष्णा कांत पाठक ने त्रिगुणात्मिका प्रकृति, आधी आत्मा वालों का जगत, गंधमादन का कस्तूरीमृग व साखी सबद रमैनी मेरी जैसी बेहतरीन कविताएं लिखी हैं. उनके पास सुगठित वाक्य संचरना है व वस्तुनिष्ठ कवि दृष्टि. जितेंद्र सोनी की मरता हुआ आदमी व सीरियाई बच्चे शीर्षक कविताओं में पीड़ा का घना अर्थबोध है. तुषार धवल महीन बीनाई के कवि रहे हैं. उनकी कविता पुस्तक पहर यह बेपहर का काफी चर्चित रही है. आधी रात का बुद्ध, एक पहाड़ अकेला कविताएं यहां उनकी कविताई का सिद्ध प्रमाण हैं. पुलिस सेवा की अधिकारी पल्लवी त्रिवेदी की कविताओं में पर्याप्त परिष्कृति है. जीवन के शाश्वरत प्रश्नों की अनुगूंज है. पंचतत्व, बारिश, एकांत, पिता सोते नहीं व रो लो पुरुषों में एक सधा हुआ आवेग है. एकांत से गुजरते हुए अज्ञेय के एकांतों की याद आती है. भारतीय पुलिस सेवा के ही वरिष्ठ अधिकारी मनमोहन हिंदी कविता की मुख्यधारा के मनमोहन से कम नहीं. कई संग्रह प्रकाशित हैं उनके. उपन्यास भी. एक छोटी कविता इंसाफ में उन्होंने सौंदर्य को देखने का क्या नजरिया रखा है- वो सच/ मरमरी उपमाएं/ शिंगरफी संवेदनाएं/ सिर्फ थीं तुम्हें लुभाने की खातिर/ वरना जिस्म तो जिस्मों जैसा ही था/ जागते सोते सोचते भोगते/ अनगिनत जिस्मों जैसा। (पृष्ठ  143) राकेश कुमार पालीवाल की कविताएं अधिकतर आदिवासियों को समर्पित हैं.

वीरेंद्र ओझा अपनी कविताओं में जैसे अपने अतीत के दृश्यों को याद करते हैं. सरकारी हिंदीभाषी स्कूल ऐसी ही कविता है. शीला दहिमा की कविताओं में जिंदगी को देखने का अंदाज संजीदा है. मैं पानी की बूँद हूँ मेरा मोल समझो, जिन्दगी मिलेगी दोबारा, तुम भीग जाओ न प्यार की बारिशों में व दुख तुम मुझको अच्छे भी लगते हो जैसी कविताएं उनके महत्व की ओर इंगित करती हैं. संगीता गुप्ता की कलाकारिता उनकी कविताओं के विजुअल्स को रुपायित करती हैं. उनकी कविताओं में स्पर्श के गुलमोहर हैं, मन की जमीन है और संवेदना की नमी. संजय अलंग कविता में एक सुपरिचित नाम है. शव व पगडंडी छिप गई थी संग्रहों के कवि संजय की कविताएं- सुंदर, अधिपति व गुलेल सुगठित हैं. संजीव बख्शी इस संग्रह के चुनिंदा कवियों में हैं. कई संग्रहों के कवि संजीव बख्शी की सभी कविताएं कविता की मुख्य धारा की कविताओं का आस्वाद देती हैं. उनकी कविताओं में किसी अलंकरण का मुलम्मा नहीं, एक कवि की सहजता और निर्भयता है. संदीप जैन की कविताओं में स्त्री संवेदना सघन है. कई कविताएं स्त्रियों पर हैं.

कविता परस्पर न केवल प्रशासनिक अधिकारियों की कविता के रूप में बल्कि हिंदी कविता के नए आस्वाद के धरातल पर भी एक अच्छा चयन है. हालांकि अभी तमाम ऐसे प्रशासनिक अधिकारी छूटे होंगे जो साहित्य से गहरे जुडे होंगे. इस चयन के संपादकीय में जितेंद्र सोनी कहते हैं, इस चयन का उद्देश्य यह है कि लोग यह समझ सकें कि लोकसेवक अपने प्रशासनिक उत्तरदायित्वों से घिरे होते हुए भी अपने भीतर मानवीय संवेदनाओं और भावनाओं की अनुभूति और अभिव्यक्ति को न केवल सजीव रखे हुए हैं अपितु इसी संवेदना की वजह से जनोन्मुखी प्रशासन संभव हो सका है. कविता परस्पर का सुघड़ प्रकाशन विजया बुक्स ने किया है।
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पुस्तकः कविता परस्पर- प्रशासक कवि श्रृंखला
संपादक:
 जितेंद्र कुमार सोनी
प्रकाशक:
 विजया बुक्स
मूल्यः 
295/- रुपए
पृष्ठः
 248